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हम शिकारी और खानाबदोश थे |
सरहदें हर जगह थी |
हम केवल जमीन, समुद्र और आसमान से घिरे थे |
वह खुला रास्ता अभी भी बुलाता है |
हमारी छोटी सी धरती हजारों लाखों दुनिया का पागलखाना है |
हम जो अपने ही ग्रह को व्यस्थित नहीं रख सकते,
जो प्रतिद्वंद्विता और घृणा से विखंडित हैं,
क्या वो हम हैं जो अंतरिक्ष में जाने का साहस करेंगे ?
जब तक हम पास के किसी अन्य ग्रह प्रणालियों में बसने के लिए तैयार होंगे
तब तक हम बदल गए होंगे |
आगे आने वाली पीढ़ियों से हम बदल चुके होंगे,
आवश्यकता हमें बदल चुकी होगी |
हम एक अनुकूलनीय प्रजाति हैं |
वह हम नहीं होंगे जो अल्फा सेचुरी और अन्य आसपास के ग्रहों तक जायेंगे,
वह एक ऐसी प्रजाति होगी जो बहूत कुछ हमारे जैसे ही होगी,
लेकिन वो हमसे ज्यादा ताकतवर होगी
और हमारी कमजोरियां उनमे नहीं होंगी,
उनमे और अधिक आत्मविश्वास, दूरदर्शिता,योग्यता और ज्ञान होगा |
हमारी सभी असफलताओं बावजूद , हमारी सीमाओं और भ्रम के बावजूद
हम इंसान विशिष्टता प्राप्त करने में सक्षम हैं |
कौन से नए आश्चर्य जो हमारे समय में नहीं देखे गए,
जो हमारी आगली पीढ़ी में गढ़े जायेंगे ?
और उसकी अगली पीढ़ी में?
अगली सदी के अंत तक हमारी खानाबदोश प्रजाति कितनी दूर पंहुच जाएगी ?
और उसकी अगले सहस्राब्दी कितनी दूर पंहुच जाएगी?
सौर मंडल और उसके पार की दुनिया में सुरक्षित बसे हमारे दूरस्थ वंशज
एकीकृत हो जायेंगे
उनकी साझा विरासत के द्वारा ,उनके अपने ग्रह के सम्मान के सांथ,
और ज्ञान के द्वारा कि जैसा भी अन्य जीवन हो, सारे ब्रह्मांड में मनुष्य केवल
पृथ्वी से आते हैं |
वो अपने आकाश में टकटकी लगाकर नीले ग्रह को ढूँढने का प्रयास करेंगे |
वे इस बात पर हैरान होंगे कि, एक समय हमारी क्षमता का भंडार कितना कमजोर था
हमारी प्रारंभिक अवस्था कितनी जोखिम भरी थी |
हमारी शुरुआत कितनी विनम्र थी |
हमे अपने रास्ते को पाने से पहले कितनी नदियों को पार करना पड़ा था |