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प्रस्तुत है
रहस्य-विद्यालय
ऊर्ध्वगामी दिशा में जीने की शिक्षा
‘‘मानवता का विकास और मानव-चेतना का विकास दोनों बिलकुल अलग आयाम हैं।
इतिहास का विकास समय के भीतर घटता है और चेतना का विकास समय में नहीं घटता।
वह सारा विकास जो हम देख सकते हैं, वह सब जो दृश्य है, समतल है;
जब कि चेतना का विकास जो हम देख नहीं सकते--ऊर्ध्व है।
और इसे हम देख नहीं सकते क्योंकि यह ऊर्ध्व है।’’
ओशो,
हमने कम्यून का प्रयोग किया है
पूरब और पश्चिम में
जो ज्यादा लंबे समय तक नहीं चला।
बुद्ध और दूसरे बुद्धपुरुषों ने भी
कम्यून निर्मित किए जो लंबे समय तक चले।
इन दोनों में क्या अंतर है?
गौतम बुद्ध
और दूसरे सदगुरुओं
ने कभी इस तरह से कम्यून निर्मित नहीं किए
जिस तरह से
हमने किए।
बुद्ध
के अनुयायी थे,
परंतु एक स्थान पर न रुक कर...
वे निरंतर गतिमान रहे।
महावीर के अनुयायी थे,
परंतु एक स्थान पर न रुक कर... वे निरंतर गतिमान रहे।
अतः किसी ने
कम्यून का निर्माण
इस तरह से नहीं किया
जिस तरह से हमने किया।
पांच हजार लोगों का एक साथ इकट्ठे रहना
एक बिलकुल अलग अनुभव है,
बुद्ध के पांच हजार
भिक्षुओं
की अपेक्षा जो
एक स्थान पर केवल तीन दिन रुकते हुए,
एक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाते थे।
एक पूरी तरह से अलग बात थी।
और उसमें भी
आदमी की धूर्तता प्रवेश कर जाती है।
जैन साधुओं को
चलते रहना होता है
निरंतर,
वर्षा ऋतु को छोड़ कर।
भारत में,
मौसम निश्चित समय पर बदल जाते थे,
आणविक प्रयोगों के
प्रारंभ होने से पहले।
यहां तक कि तिथियां और दिन निश्चित होते थे
--किस दिन
वर्षा शुरू होगी और किस दिन वर्षा रुक जाएगी
--और चार-चार महीने की तीन ऋतुएं निश्चित होती थीं।
इसलिए वर्षा ऋतु में चार महीने उन्हें रुकना पड़ता था।
किंतु वह भी कुछ ऐसा मतलब नहीं था कि हजारों
संन्यासी एक ही स्थान पर रुकते,
बल्कि वहां जहां पर भी वे होते।
परंतु
आदमी के मन की चालाकी ऐसी है
कि मैंने ऐसे जैन साधु देखे हैं
जिन्होंने अपना पूरा जीवन मुंबई में गुजारा है
—कोई तो वहां पचास वर्ष से है...
मैंने पूछा, ऐसा किस तरह से व्यवस्थित हो पा रहा है?
क्योंकि यह
आधारभूत नियमों
और अनुशासन के विरुद्ध है।
तीन दिन के बाद उन्हें स्थान छोड़ कर जाना ही होता है।
और मुझे बताया गया कि
महावीर के समय में मुंबई जितने बड़े शहर नहीं होते थे।
अब जैन साधु मुंबई में एक हिस्से से
दूसरे हिस्से में चला जाता है।
और इस तरह से वह मुंबई के चारों ओर,
मुंबई में ही एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमता रहता है।
परंतु वह रहता मुंबई में है,
और वह मुंबई कभी छोड़ कर नहीं जाता।
क्या खूब चालाकी है!
वह एक
उपनगर से
दूसरे उपनगर में चला जाएगा;
और यह दूसरा स्थान हो गया!
और क्योंकि महावीर के समय में
इतने
बड़े शहर नहीं थे
और ये उपनगर
अलग
शहर, अलग कस्बे हो सकते थे,
अतः... ‘हम यात्रा पर रहते हैं।’
और वे चक्कर लगाते रहते हैं।
और मुंबई
की जनसंख्या
...
लगभग
एक करोड़ है।
लाखों लोग प्रतिदिन
काम करने
आते हैं
निकट के शहरों से
और वे शाम को वापस लौट जाते हैं।
और लाखों लोग
शहर में रह रहे हैं।
तर्क के अनुसार वे ठीक हैं
कि वहां कोई शहर नहीं था,
बुद्धा के समय में
इतनी जनसंख्या वाला।
परंतु सारा अभिप्राय चूक जाता है।
सीधा अभिप्राय तो यह था
कि तुम एक स्थान के प्रति आसक्त
न हो जाओ,
कि तुम मित्रता करना शुरू न कर दो,
पसंद-नापसंद।
तीन दिन में तुम कुछ ज्यादा कर भी नहीं सकते।
एक दिन तुम आते हो,
केवल
एक दिन वास्तव में तुम रुकते हो,
और तीसरे दिन तुम्हें जाना ही है।
इतना समय काफी नहीं है
किसी
राजनीति
या कोई
स्थानीय समस्याओं में पड़ने के लिए।
राजनीति के प्रभाव से
बचने के लिए, ©— —¼
स्थानीय समस्याओं से बचने के लिए,
आसक्ति से,
ऐसा उपाय किया गया था कि तुम तीन दिनों में चल दो।
परंतु तीन दिनों के बाद वे उसी
शहर में घूमते रहते हैं
--पचास सालों तक, साठ सालों तक।
उनका घनिष्ठ
संबंध है लोगों के साथ।
वे लगभग मुंबई वासी हैं!
लोग जो उन्हें पसंद करते हैं,
वे जहां भी होते हैं, उन्हें सुनने आते हैं।
किसी का भी
ऐसा कम्यून नहीं था
जिस कम्यून का
प्रयास हमने किया है।
और
दोनों प्रयोगों ने
गहरा बोध दिया है
मानव-स्वभाव का,
इसलिए कुछ भी असफल नहीं हुआ है।
हमने बहुत कुछ सीखा है।
सो अब मैं कोई कम्यून बनाने नहीं जा रहा हूं।
अब मैं बिलकुल एक भिन्न कार्य करने जा रहा हूं:
मिस्टरी स्कूल, एक रहस्य-विद्यालय...
कोई चालीस-पचास लोग
वहां रहेंगे
देखभाल करने के लिए
विद्यालय की,
और दौ सौ, तीन सौ, पांच सौ लोग
एक माह के कोर्स के लिए,
या दो माह के कोर्स के लिए, या तीन माह के कोर्स के लिए, वहां आ सकते हैं,
और फिर वे चले जाएंगे।
और धीरे-धीरे हम लोगों को प्रशिक्षित कर सकते हैं
ताकि वे पूरी दुनिया में रहस्य-विद्यालय खोल सकें।
मिस्टरी स्कूल एक अलग बात है।
आप वहां तीन माह के लिए
कुछ सीखने के लिए,
किन्हीं अनुभवों से गुजरने के लिए किन्हीं अनुभवों से गुजरने के लिए आते हैं,
और फिर आप संसार में वापस पहुंच जाते हैं,
अपनी नौकरी, अपने काम-काज करने के लिए।
कम्यून के प्रयोग से यह स्पष्ट हो गया है कि
अगर पांच हजार लोग
एक कम्यून में रहते हैं,
तो उनको बहुत सी बातें करनी पड़ेंगी
--सड़कें बनाना, मकान बनाना,
पांच हजार लोगों के लिए दूसरी सुविधाओं को बनाना,
और उन मेहमानों के लिए भी जो
उत्सवों के समय आएंगे।
इन लोगों के पास समय नहीं बचेगा
जिस वास्तविक खोज के लिए ये यहां आए थे
प्राथमिक रूप से।
उनके पास ध्यान के लिए समय नहीं होगा।
उनके पास
कोई समय नहीं होगा
अपने भीतर उतरने का,
ध्यान-विधियों को खोज कर उन पर काम करने के लिए समय नहीं होगा,
क्योंकि यह काम इस प्रकार का है
कि ऐसा नहीं कि तुम रोज पांच घंटे के हिसाब से
सप्ताह में पांच दिन काम करो।
यह काम कभी समाप्त नहीं होगा।
तुम्हें एक दिन में दस-बारह घंटे
सप्ताह के सातों दिन काम करना होगा।
तुम थक जाते हो
--और इसके अलावा,
जो तुम कर रहे हो वह सिर्फ
तुम्हारी अपनी जरूरी सुविधाओं के लिए है।
जल्दी ही तुम्हें उत्पादन आरंभ करना होगा,
अन्यथा कहां से आएगा
तुम्हारा भोजन, तुम्हारे वस्त्र?
तो यह एक दुष्चक्र है।
और जब पांच हजार लोग होंगे,
तो वहां सत्ता के लिए कूटनीति चलना स्वाभाविक है।
तब तुम्हें
समूह के नेताओं और
समन्वयकों को नियुक्त करना होगा।
यह संभव नहीं है कि
पांच हजार लोगों को स्वतंत्रता देना कि
‘जो भी आप पसंद करते हैं वह करें’
--क्योंकि वे सब तैराकी और
ट्रेकिंग के लिए और
अपने गिटार बजाने लिए चले जाएंगे,
लेकिन फिर सड़कें कौन बनाएगा? और मकान और खेती कौन करेगा?
और तुम्हारे भोजन
और वस्त्रों की व्यवस्था कैसे होगी?
कितनी देर हम दान पर निर्भर रह सकते हैं?
जल्दी ही तुम्हें
कारखाने बनाने पड़ेंगे
और कुछ वस्तुओं का निर्माण करना होगा।
तब यह कम्यून एक साधारण संसार बन कर रह जाएगा
तो व्यर्थ ही इतनी
झंझट क्यों ली जाए?
हमारा मूल कारण
तुम्हें अपने भीतर
एक अंतर्दृष्टि देना था।
वह पूरी तरह भूल गया था व्यर्थ की क्षुद्रताओं में।
इसलिए मेरे काम का नया चरण है,
मिस्टरी स्कूल, एक रहस्य-विद्यालय।
तुम संसार में काम करो, जहां सड़कें पहले से ही हैं,
मकान पहले से ही है,
तुम्हें उनका निर्माण करने की आवश्यकता नहीं।
कारखाने पहले ही माजूद हैं...
हजारों सालों में संसार ने
वह पहले ही बना लिए हैं।
तो तुम इतना मैनेज कर सकते हो--पांच घंटे काम
सप्ताह में पांच दिन के लिए पर्याप्त है।
सप्ताह के अंत में
तुम ध्यान कर सकते हो,
तुम मौन में जा सकते हो या
किसी सुनसान स्थान पर जाकर बस आराम कर सकते हो।
और साल भर में तुम
इतना धन कमा लोगे, इतना धन बचा लोगे कि
तुम यहां आ सको
एक माह, दो माह, तीन माह के लिए...
जितनी भी तुम व्यवस्था कर सकते हो।
तब मेरे साथ होने के लिए
काम करना जरूरी नहीं होगा।
तब मेरे साथ होना
बस एक आनंद होगा,
उत्सव,
ध्यान,
गीत व नृत्य होगा।
वे तीन माह बस
छुट्टी के होंगे।
तुम उन तीन माह के लिए संसार को भूल जाओ।
वह सत्य की शुद्ध खोज है।
और तीन माह बाद
जो भी तुमने सीखा है,
वह घर पर जारी रखो;
वहां तुम्हारे पास समय है।
तुम पांच घंटे काम करते हो
--तुम्हारे पास पर्याप्त समय है;
तुम कम से कम दो घंटे
अपने लिए निकाल सकते हो।
यही नहीं...
जब तुम मेरे साथ रहना आरंभ करते हो
तब यह
संभावना है कि
तुम मेरे होने की कद्र करना ही भूल जाओ
कि मैं तो यहां सदा ही हूं।
नौ माह मुझसे दूर होना
तुम्हें मेरे ज्यादा करीब ले आएगा।
क्योंकि दूरी से अभीप्सा बनती है,
प्यार पैदा होता है,
समझ पैदा होती है।
तो हर वर्ष तुम आते रहोगे और चले जाओगे।
तुम जितनी व्यवस्था कर पाओ... तुम दो बार आ सकते हो।
तुम किसी पर बोझ नहीं होओगे
और किसी को तुम पर हावी होने की आवश्यकता नहीं होगी,
किसी तरह के
कड़े
अनुशासन की कोई आवश्यकता नहीं होगी
काम के लिए यह आवश्यक है।
समन्वयकों की कोई आवश्यकता नहीं होगी,
तो सत्ता की दौड़ से भी हम बच सकेंगे।
हमारे पिछले दोनों
कम्यून्स ने हमारी मदद की है
हमें इस जगह पर लाने में कि हम
एक रहस्य-विद्यालय का आरंभ कर सकते हैं।
उन दोनों कम्यून्स के बिना यह असंभव होता।
यह मेरी दृष्टि है
चीजों को देखने की।
असफलताएं भी
नजदीक लाती हैं
हमें सफलता के,
क्योंकि हर असफलता हमें एक अंतर्दृष्टि देती है कि
क्या गलत हुआ, कैसे गलत हुआ।
कैसे गलत हुआ।
इसलिए दोनों ही प्रयोग
अत्यधिक महत्वपूर्ण रहे हैं।
अब हम इस स्थिति में हैं कि
एक जगह बना सकें
बिलकुल भिन्न प्रकार की,
जहां बस उत्सव हो
पूरे वर्ष।
यहां लोग आएंगे और चले जाएंगे।
जो वे यहां सीखेंगे उसे साथ ले जाएंगे और उसका अभ्यास
करेंगे संसार में,
और वे फिर आएंगे
स्वयं को नया बनाने, तरोताजा करने,
आगे और गहरे जाने के लिए।
यहां सिर्फ एक छोटा सा समूह होगा
तुम्हारी देखभाल करने के लिए।
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