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Translator: Swapnil Dixit Reviewer: Vatsala Shrivastava
आखिर चल क्या रहा है
इस बच्चे के दिमाग में?
अगर ये सवाल ३० साल पहले किया गया होता,
तो ज्यादातर लोग, और मनोवैज्ञानिक
कहते कि ये बच्चा बेसमझ है,
तर्क नहीं समझता, बस अपने बारे में सोचता है --
और ये दूसरों का दृष्टिकोण नहीं समझ सकता
या ये नहीं समझता कि कुछ करने का क्या परिणाम होगा।
पिछले बीस सालों में,
विकास के विज्ञान ने इस राय को उलट दिया है।
आज ये कहा जा सकता है कि,
हमें लगता है कि इस बच्चे की सोच
दुनिया के सबसे उम्दा साइंस्टिस्टों जैसी ही है।
आपको एक उदाहरण देता हूँ।
हो सकता है कि एक बात जो कि ये बच्चा सोच रहा है,
या उसका दिमाग जो कर रहा है,
वो ये समझना चाहता है कि
इस दूसरे बच्चे के दिमाग में क्या चल रहा है।
आखिरकार, हम सब के लिये सबसे कठिन कामों में से एक है
ये पता लगाना कि दूसरे लोग क्या सोच रहे हैं और महसूस कर रहे हैं।
और हो सकता है कि सबसे कठिन काम
ये समझना हो कि जो दूसरे लोगों की सोच और अनुभव,
उस से अलग है जो हम सोचते और महसूस करते हैं।
राजनीति पर ध्यान देने वाले लोग बता सकते हैं कि
कुछ लोगों के लिये ये समझना कितना मुश्किल है।
हम ये जानना चाहते थे कि
क्या शिशु और छोटे बच्चे
दूसरों से जुडी ऐसी जटिल बात को समझने के काबिल हैं?
अब सवाल ये था कि हम बच्चों से ये पूछें कैसे?
बच्चे हैं - बोल तो सकते नहीं,
और अगर आप तीन साल के बच्चे से कहेंगे
कि बताओ तुम क्या सोच रहे हो,
तो वो आपको एक खूबसूरत सा अबोध भाषण देगा
जन्मदिन की पार्टी, और घोडे और ऐसी ही चीजों पर।
तो हम उनसे ये सवाल करें तो कैसे करें?
असल में, इस रहस्य का जवाब फूलगोभी में छुपा था।
मेरी एक विद्यार्थी बैट्टी रापाचोली, और मैने
बच्चों को खाने की दो कटोरियाँ दीं:
एक में कच्ची फूलगोभी
और एक में स्वादिष्ट गोल्डफ़िश जैसे बिस्कुट।
सारी दुनिया के बच्चे, यहाँ तक कि बर्कली के भी,
बि़स्कुट पसंद करते हैं, और कच्ची गोभी को नापसंद करते हैं।
ठहाका
पर फिर बेट्टी ने क्या किया कि
हर कटोरी से खाने को चखा।
और उसे पसंद या नापसंद करने की ऐक्टिंग की।
तो आधी बार, उसने दिखाया कि
उसे बिस्कुट पसंद है और गोभी नापसंद --
जैसे कि किसी बच्चे या नार्मल इंसाल को होना चाहिये।
मगर आधी बार,
वो थोडी से गोभी लेती थी
और कहती थे, "वाsssssह, गोsssभीssss!
मैने गोभी खाई, वाsssssह।"
और फिर वो थोडे से बिस्कुट लेती थी,
और कहती थी, "छिः, छिः, बिस्कुट,।
मैने बिस्कुट खाया, थू, थू, थू।"
तो उसने ये दिखाया कि उसकी रुचि
बच्चों की रुचि से उल्टी थी।
हमने ये प्रयोग १५ और १८ साल के बच्चों के साथ किया।
और फिर वो अपना हाथ आगे कर के कहती थी,
"थोडा सा मुझे भी दो ना!"
तो सवाल ये था कि बच्चे उसे क्या देंगे,
वो जो उसे पसंद है, या वो जो उसे नापसंद है?
और ग़जब की बात ये है कि १८ महीने के बच्चे,
जो ठीक से चल बोल भी नही पाते,
उसे बिस्कुट देते थे, अगर उसे बिस्कुट पसंद थे,
और गोभी देते थे अगर उसे गोभी पसंद थी।
साथ ही,
१५ महीने के बच्चे उस की तरफ़ देर तक टकटकी लगाये रहते थे
अगर उसने गोभी पसंद करने की एक्टिंग की थी,
जैसे उन्हें समझ नहीं आ रहा हो क्यों
मगर थोडी देर तक एकटक देखने के बाद,
वो उसे बिस्कुट ही देते थे,
जो उन्हें लगता कि सबको पसंद होता होगा।
इस प्रयोग में दो बातें बेहद ज़रूरी हैं।
पहली ये कि इन छोटे छोटे १८ महीने के बच्चों ने
समझ लिया है
इंसानी प्रकृति के इस गूढ रहस्य को
कि सब लोगों को एक ही चीज़ अच्छी नहीं लगती।
खास बात ये है कि उन्हें लगा कि उन्हें वो ही करना चाहिये
जो दूसरों को उनकी मनचाही चीज़ पाने में मदद करे।
इस से भी खास बात है
१५ महीने के बच्चों का ऐसा नहीं करना
ये दिखाता है कि १८ महीने के बच्चों ने
इतना गूढ, जटिल रहस्य
केवल पिछ्ले तीन महीनों में सीखा था।
तो बच्चे कहीं ज्यादा जानते और सीखते हैं
हमारी आशा के मुकाबले।
और पिछले बीस साल में हुये कई हज़ारों प्रयोगों ने
इस बात को दर्शाया है।
हाँ ये प्रश्न ज़रूर उठता है कि:
बच्चे इतना क्यों सीखते हैं?
और उनके लिये इतना सीखना संभव कैसे है,
वो भी इतने कम समय में?
मेरा मतलब है कि, अगर आप बच्चों को ऊपर-ऊपर से देखें
तो वो किसी काम के लायक नहीं लगते।
और असल में, वो उस से भी बदतर होते हैं
क्योंके उल्टे उनमें इतना सारा समय और ताकत लगानी पडती है
बस उन्हें जीवित भर रख पाने में।
मगर यदि हम विकास के क्रम
में इस पहेली का जवाब ढूँढें
कि क्यों हम इतना समय
इन बेकार बच्चों को पालने में लगाते हैं,
तो उसका उत्तर मिलता है।
यदि हम तमाम सारे जीवों पर नज़र दौडायें,
न सिर्फ़ मानवो पर ही,
मगर बाकी स्तनधारियों, चिडियों
धानी प्राणियों पर (जो बच्चों को थैली में रखते हैं)
जैसे कि कंगारू,
एक संबंध दिखता है:
इसमें कि एक जीव का बचपन कितना लंबा है
और इसमें कि उनका दिमाग उनके शरीर की तुलना में कितना बडा है
और वो कितने बुद्धिमान और लोचदार हैं।
और सबसे आगे हैं पक्षी।
एक तरफ तो
ये न्यू कैलेडोनियन कौआ है।
और कौए और उसके जैसे जीव, रेवन, रूक्स वगैरह
बहुत ज्यादा बुद्धिमान होते हैं।
कुछ मायनों में तो वो चिम्पान्ज़ी जितने बुद्धिमान होते हैं।
और ये चिडिया जो साइंस के कवर पेज पर है,
और जो औजार इस्तेमाल कर के भोजन पाना सीख चुकी है।
दूसरी तरफ़,
हमारा घरेलू चिकन है।
और मुर्गे, बतख, और गीस और टर्की
बहुत ज्यादा बेवकूफ़ जीव होते हैं।
वो अनाज का दाना ढूँढने में माहिर होते हैं,
लेकिन उस से ज्यादा कुछ कर नहीं पाते।
और असल में
कौओं के बच्चे, पूरी तरह नाकारा होते हैं।
वो अपनी माँ पर पूरी तरह निर्भर होते है
उनकी छोटी छोटी चोंचों में कीडे डालने के लिये
लगभग जन्म के दो साल तक,
जो कि एक चिडिया के जीवन में बहुत लम्बा समय है।
जबकि मुर्गे बडे हो जाते हैं
जन्म के कुछ ही महीनों में।
तो बचपन की लंबाई ही कारण है कि
कौए साइस के कवर पेज पर हैं
और चिकन सूप के कटोरे में।
लम्बे बचपन में कुछ तो है जो
इसे जोडता है
ज्ञान और सीखने की क्षमता से।
अब इस को कैसे समझा जाये?
कुछ जानवर जैसे कि चिकन,
बहुत उपयुक्त हैं,
सिर्फ़ एक काम को ढँग से करने में।
तो चिकन पूरी तरह माहिर हैं
किसी एक तरह के स्थितियों में अनाज ढूँढने में।
दूसर जीव जैसे कि कौए,
किसी भी काम को पूरी कुशलता से करना नहीं जानते,
मगर वो बहुत अच्छे है
नयी स्थितियों के नियम सीखने में।
और हम मनुष्य
तो कौओं वगैरह से बहुत आगे निकल आये हैं।
हमारा दिमाग से हमारे शरीर का अनुपात बडा है
किसी भी दूसरे जानवर के मुकाबले।
हम ज्यादा बुद्धिमान है, हम ढलना जानते हैं,
हम ज्यादा सीख सकते है,
और हम ज्यादा तरह के पर्यावरणों में जीवित रह सकते है,
हम सारी दुनिया में फ़ैले हुए हैं और अंतरिक्ष तक भी पहुँच गये हैं।
लेकिन हमारे बच्चे हम पर ही निर्भर रहते हैं
किसी भी दूसरे जीव के बच्चों से ज्यादा लम्बे समय तक।
मेरा बेटा २३ साल का है।
ठहाका
और कम से कम जब तक वो २३ साल के नहीं हो जाते,
हम कीडे पहुँचाते रहते हैं
उनकी छोटी छोटी चोंचों में।
तो, हमें ये संबंध क्यों दिखता है?
एक आयडिया ये है कि युक्ति लगाना, और इसे सीखना
इस दुनिया में जीने के लिये बहुत बहुत ज़रूरी है
मगर उस का एक बडा नुकसान है।
और वो नुकसान ये है कि
जब तक आप सब कुछ सीख नहीं लेते,
आप दूसरों पर निर्भर रहेंगे।
तो आप नहीं चाहेंगे कि जब कोई हाथी आपको दौडा रहा हो,
तो आप खुद से कह रहे हों,
"शायद गुलेल काम करेगी, नहीं नहीं, भाला काम करेगा। क्या इस्तेमाल करूँ?"
आप को वो सब सीखना जानना होगा
इस से पहले कि हाथी आप को दिखे।
और जिस तरह से विकास-क्र्म ने इस समस्या को सुलझाया है वो है
काम बाँट कर।
तो सुझाव ये है कि हमें शुरुवात में कुछ समय मिलता है जब हमें पूरी सुरक्षा मिलती है।
हमें खुद कुछ नहीं करना होता। हमें बस सीखना होता है।
और फिर व्य्स्कों के रूप में,
हम वो सारी विद्या काम में ला सकते हैं जो हमने बचपन में पाई होती है
और उस का इस्तेमाल कर के इस दुनिया में अपना काम चला सकते हैं।
तो ये कहा जा सकता है कि
शिशु और छोटे बच्चे
मानवों का रिसर्च एंड डेवेलेप्मेंट विभाग हैं (शोध एवं विकास)
तो वो ऐसे साइंसटिस्ट हैं जिनका काम है
बस नया कुछ सीखते रहना, और नये आयडिया निकालना,
और हम और आप हैं उत्पादन और विपणन (मार्केटिंग)
और हमें उन सारे आयडिया को
जो हमने बचपन में सीखे थे,
इस्तेमाल में लाना होता है।
दूसरी बात जो हो सकती है ये है कि
बजाय इसके कि बच्चों को
व्यस्कों के बेकार रूप माना जाये,
हमें ये सोचना चाहिये कि
वो हमारी प्रजाति के विकास के अगले स्तर पर हैं --
जैसे कि कैटरपिलर और तितलियाँ --
बस ये अत्यधिक बुद्धिमाल तितलियों जैसे हैं
जो कि बगीचे में घूम रही हैं और खोज कर रही हैं,
और हम कैटरपिलर जैसे हैं
जो धीरे धीरे अपने सधे हुए व्यस्क रास्ते पर चलते जा रहे हैं।
अगर ये सत्य है, अगर बच्चों को सीखने के लिये ही निर्मित किया गया है --
और विकास-क्रम की कहानी कह रही है कि बच्चे सीखने के लिये पैदा होते हैं,
वो इसी लिये बने हैं --
तो हम ये उम्मीद रख सकते हैं कि
वो सीखने के बहुत शक्तिशाली तरीको से लैस होंगे।
और असल में, एक बच्चे का दिमाग
उस सीखने वाले कंप्यूटर के समान है जो सबसे ताकतवर है
इस धरती पर।
मगर असली कंप्यूटर भी बहुत बेहतर होते जा रहे हैं।
और एक क्रांति हो चुकी है
मशीन लर्निंग को ले कर मानव की समझ में।
और वो सब इस व्यक्ति के काम से आता है,
रेवेरेंड थोमस बेयस,
जो कि १८वीं सदी के एक सांख्यितज्ञ और गणितज्ञ थे ।
और कुल मिला कर उन्होंने क्या किया
कि एक गणितीय तरीका निकाला
प्रोबेबिलिटी थ्योरी के ज़रिये
ये समझने और बताने का
कैसे सांसटिस्ट दुनिया को बेहतर समझते जाती हैं।
तो साइंस्टिस्ट क्या करते हैं कि
एक अनुमानिति हाइपोथेसेस से शुरुवात करते हैं
और तथ्यों को उस अनुमान से मिला कर चेक करते हैं।
तथ्यों के हिसाब से वो अपने अनुमान में बदलाव लाते हैं।
और फिर उस नये अनुमान को चेक करते है
और ऐसे ही चलता रहता है।
बेयस ने ये दिखाया कि इसे करने का एक गणितीय तरीका है
और गणित पर ही
आज के मशीन लर्निंग के सबसे अच्छे तरीके निर्भर करते हैं।
और कुछ दस साल पहले,
मैने सुझाया था कि बच्चे भी यही करते होंगे।
तो अगर आप जानना चाहते है कि क्या चल रहा है
इन प्यारी सी भूरी आँखों के भीतर,
तो वो कुछ ऐसा दिखता है।
ये रेवेरेंड बेयस की नोटबुक है।
तो मुझे लगता है कि बच्चे असल में बहुत गूढ गणित में जुटे होते हैं
कंडिशनल प्रोबेबिलिटी के गणित में , जिसे वो बार बार करते हैं
ये समझने के लिये कि दुनिया कैसे काम करती है।
ये सत्य है कि इस बात को असल में दिखा पाना बहुत कठिन काम होगा।
क्योंकि, अगर आप व्यस्कों से भी सांख्यिकी पर बात करेंगे,
तो वो भी बेवकूफ़ाना बातें करते हैं।
तो ऐसा कैसे हो सकता है कि बच्चे साँख्यिकी करते हैं?
तो इस का पता लगाने के लिये हमने एक मशीन बनाई
जिसे हम ब्लिकेट डिटेक्टर कहते हैं।
ये एक डब्बा है जिसमें लाइटें हैं और संगीत बजता है
जब आप कुछ खास चीजें इस पर रखते हैं।
और इस साधारण सी मशीन का इस्तेमाल करके,
मेरी प्रयोगशाला में और बाके दर्ज़नों जगहों पर
ये दिखाया जा चुका है कि बच्चे कितने कुशल होते हैं
इस दुनिया के बारे में सीखने में।
मैं एक ऐसे प्रयोग के बारे मे बताता हूँ
जो मैने तुमार कुशनेर, मेरे विद्यार्थी, के साथ किया।
यदि मैं आपको ये डिटेक्टर दिखाऊँ,
तो शायद आप सोचें कि
इस डिटेक्टर को चालू करने के लिये
इस के ऊपर एक ब्लाक रखना होगा।
मगर असल मे, ये डिटेक्टर
थोडा अलग तरह से काम करता है।
क्यों कि यदि आप आप ब्लाक को इस के ऊपर हिलायेंगे,
जो बहुत मुश्किल है कि आप सोचें शुरुवात में,
ये सिर्फ़ तीन में से दो बार चालू होगा।
जबकि यदि आप ब्लाक को सीधे इसके ऊपर ही रख देंगे, तो
वो सिर्फ़ छः में से दो बार ही चालू होगा।
अक्सर नहीं होने वाली बात का
प्रमाण ज्यादा भरोसेमंद है।
ऐसा कहा जा सकता है कि ब्लाक हिलाना
बेह्तर तरीका है ब्लाक रखने के मुकाबले।
तो हमने बस यही किया: हमने चार साल के बच्चों को ये दिया
और उनसे इसे चलाने को कहा।
और चार साल के बच्चों ने इसे इस्तेमाल कर के
ब्लाक को डिटेक्टर के ऊपर सिर्फ़ हिलाया।
अब इस में दो बहुत रोचक बातें सामने आयीं।
पहली तो ये, और ये बच्चे बस चार साल के ही हैं,
अभी महज गिनती गिनना ही सीख रहे हैं।
लेकिन अचेतन रूप से,
ये अंदर अंदर इतनी जटिल गणनायें कर रहे हैं
जो उन्हें कंडिशनल प्रोबेबिलिटी का अनुमान दे रही हैं।
और दूसरी रोचक बात ये है कि
वो प्रमाण का इस्तेमाल कर के
इस दुनिया के बारे में एक ऐसा अनुमान लगा रहे हैं
जो इतना आसान नहीं है।
और ऐसे ही कई और प्रयोगों मे,
हमने दिखाया है कि चार साल के बच्चे बहुत बेहतर हैं
सीधे न दिखने वाले तरीकों तक पहुँचने में
बजाय व्यस्कों के, जब दोनों को हूबहू वही काम दिया जाता है।
तो इन स्थितियों में,
बच्चे सांख्यिकी का इस्तेमाल कर के दुनिया को जान समझ रहे हैं,
मगर क्योंकि साइंसटिस्ट प्रयोग करते हैं,
तो हम ये जानना चाहते थे कि क्या बच्चे भी प्रयोग करते हैं।
जब बच्चे प्रयोग करते हैं, हम उसे "गडबड करना" कहते हैं
या फ़िर "खेलना"
और कई प्रयोग हुये हैं जिन्होनें
दिखाया है कि ये "खेलना"
एक तरीके का असलनी का प्रयोगात्मक शोध कार्यक्रम है।
ये वाल क्रिस्टीन लेगारे की प्रयोगशाला से है।
क्रिस्टीन ने हमारे ब्लिकट डिटेक्टर का इस्तेमाल किया।
और बच्चो को दिखाया कि
पीले वाले से चलता है, और लाल वाले से नहीं,
फ़िर उन्हें कुछ अलग दिखाया।
और आप देखेंगे कि
ये बच्च पाँच हाइपोथेसिस से गुज़रता है
सिर्फ़ दो मिनट के समय में।
बच्चा: ऐसे करूँ?
जैसे दूसरी तरफ़ किया।
ऐलिसन गोपनिक: तो ये हाइपोथेसिस गलत साबित हुई।
ठहाका
बच्चा: ये जल रहा है, और ये नहीं।
ए.जी.: ठीक है, अब उसने अपनी प्रयोग की नोटबुक निकाल ली है।
बच्चा: ये जल क्यों रहा है।
ठहाका
पता नहीं।
ए.जी. : हर साइंसटिंस्ट इस भावना को समझ सकता है।
ठहाका
बच्चा: ओह, तो इसे ऐसे होना चाहिये,
और इसे ऐसे होना चाहिये।
ए.जी : तो हाइपोथेसिस दो।
बच्चा: हाँ, इसलिये।
ओह।
ठहाका
ए.जी: अब ये उसका अगला आइडिया है।
उस ने प्रयोग करने वाले को ये करने के लिये कहा,
कि उसे दूसरी जगह रखे।
यहाँ भी काम नहीं हुआ।
बच्चा: ओह, क्योंकि लाइट बस यहीं तक पहुँच रही है,
यहाँ नहीं।
ओह, इस डब्बे के तले में
बिजली भरी हुई है,
मगर इस में बिजली नहीं है।
एजी: ये है चौथी हाइपोथेसिस
बच्चा: अब ये जल रहा है।
तो जब आप चार रखते हैं।
तो आपको इसे जलाने के लिये चार रखने होते हैं
और दो इस पर इसे जलाने के लिये।
एजी: पाँचवी हाइपोथेसिस।
ये बहुत ही प्यारा बच्चा है --
और ये पयारा है और बातें बोल रहा है,
मगर क्रिस्टीन को पता लगा कि ये सामान्य सोच है।
अगर आप बच्चों को खेलते देखेंगे, और उन से कुछ पूछेंगे
तो वो असल में कुछ प्रयोग ही कर रहे होते हैं।
ये चार साल के बच्चों का सामन्य बर्ताव है।
ऐसा होना कैसा लगता होगा?
ऐसी बुद्धिमान तितली के जैसा होना कैसा होता होगा
जो दो मिनट में पाँच हाइपोथेसिस चेक करती हो?
अगर आप मनोवैज्ञानिकों और दार्शनिकों की सुने,
तो उनमें से बहुतों ने कहा है कि
बच्चे और शिशु अचेतन ही रहते है,
और यदि वो चेतन होते,
और मैं इसका ठीक उल्टा ही सोचता हूँ।
मुझे लगता है कि बच्चे और शिशु व्यस्कों के मुकाबले ज्यादा चैतन्य होते हैं।
हमें व्यस्कों की चैतन्यता के बारे में ऐसा कुछ पता है।
और व्यस्कों का ध्यान और चैतन्यता
स्पाट लाइट जैसी होती है।
तो व्यस्कों के साथ क्या होता है कि
हम ये सोच लेते है कि कुछ चीज़ ज़रूरी है,
और हमें उस पर ध्यान देन चाहिये।
हमारी उस चीज़ से जुडी चैतन्यता
बहुत ज्यादा तेज़ और जीवंत हो जाती है,
और बाकी सब जैसे अँधेरे में चला जाता है।
और हमें अब ये भी पता है कि दिमाग कैसे ऐसा करता है।
तो जब हम किसी बात पर ध्यान देते हैं
हमारा प्री-फ़्रंटल कोर्टेक्स, जो दिमाग का क्रियाशील भाग है,
एक सिग्नल भेजता है
जो हमारे दिमाग के एक खास भाग को ज्यादा रचनात्म्क बना देता है,
सीखने के लिये उत्सुक,
और बंद कर देता है
दिमाग के बाकी सारे हिस्से
तो हमार बहुत ही तीक्ष्ण, परिणाम प्रेरित ध्यान होता है।
अगर हम बच्चो और शिशुओं को देखें,
तो वो अलग तरह से काम करते हैं।
मुझे लगता है कि शिशु और बच्चे
चैतन्यता की लाल्टेन के साथ काम करते है,
बजाय स्पाटलाइट के।
तो शिशुओं और बच्चों के लिये असंभव है
किसी एक ही बात पर केंद्रित रहना।
मगर वो बहुत सारी जानकारी एक साथ ले सकने में माहिर है
, वो भी अलग अलग जगहों से एक साथ।
और अगर उन के दिमाग को देखें,
तो आप देखेंगे कि वहाँ न्यूरो-ट्रांस्मिटर की बाढ आई होती है
और इस लिये वो सीखने और ढलने में माहिर होते हैं,
और उन्हें किसी काम से रोकने वाले भाग अभी बने ही नहीं होते।
तो जब हम कहते हैं कि बच्चे और शिशु
ध्यान नहीं दे पाते,
हम ये नहीं कहना चाहते कि वो ध्यान नहीं दे पाते
बल्कि ये कि वो ध्यान हटा नही पाते
उन तमाम रोचक चीजों से जो उनके आसपास हो रही होती हैं
और सिर्फ़ एक महत्व्पूर्ण चीज पर ध्यान टिकाने के लिये।
वो उस तरह का ध्यान, या उस तरह की चैतन्यता है
जो हम सोचते हैं कि मिलेगी
उन तितलियों में जिन्हें सीखने के लिये बनाया गया हो।
और अगर हम एक तरीका सोचें
बच्चों की चैतन्यता का अनुभव लेने के लिये,
तो हमें उन स्थितियों के बारे में सोचना होगा
जहाँ हम बिलकुल नयी जगहों पर होते हैं,
या जब हमें किसी से प्यार हो जाता है,
या जब हम किसी नये शहर में पहले बार पहुँचते हैं।
और तब हमारी चैतन्यता संकुचित नहीं होती,
बल्कि विस्तृत हो जाती है।
जिस से कि पेरिस में बिताये वो तीन दिन
ज्यादा चैतन्य और अनुभव से भरे लगते है,
उन कई महीनों के मुकाबले
जो हम रोज़मर्रा के आते-जाते, मीटिंगे करते हुए बिताते हैं।
और तो और, कॉफ़ी!
जी वही कॉफ़ी जो आप अभी नीचे पी रहे थे,
असल में वैसा ही असर पैदा करती है
जैसे कि बच्चो के न्यूरो-ट्रांसमिटर।
तो बच्चा होना कैसा होता होगा?
वैसा ही जैसे इश्क में होना,
जैसे पेरिस में पहली बार जाना
या जैसे तीन कप डबल एस्प्रेसो पीने के बाद लगता है
ठहाका
ये बहुत मजेदार है,
मगर हो सकता है कि आप सुबह के तीन बजे जागे हुए पाये जायें।
ठहाका
अब बडे होना ठीक लग रहा है।
मैं बहुत नहीं कहना चाहता कि बच्चे कितने गजब के होते हैं।
बडा होना भी अच्छा है।
हम लोग सडक पार कर सकते है, जूते के फ़ीते बाँध सकते हैं।
और ये ठीक ही लगता है कि हम इतनी कोशिश करते है
बच्चों को बडों की तरह सोचना सिखाने की।
मगर यदि हमें उन तितलियों की तरह होना है,
जिनके दिमाग खुले, और सीखने को तैयार हैं,
रच्नात्मक, कल्पना शक्ति से भरे, नवीन,
तो कम से कम कुछ समय के लिये
हमे बडों को बच्चों की तरह
सोचना सिखाना होगा।
अभिवादन