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कबीर निश्चय ही मुझे
अतिप्रिय हैं।
कारण बहुत हैं।
बुद्ध से
मुझे बहुत लगाव है,
लेकिन बुद्ध
राजमहल के एक उपवन हैं।
सुंदर फूल खिले हैं।
बड़ी सजावट है बगिया में,
बड़ी रौनक है।
परिष्कार है।
लेकिन
जंगल की जो
सहजता है,
स्वाभाविकता है
उसका अभाव है।
बुद्ध अगर उपवन हैं
तो कबीर
जंगल हैं।
जंगल का अपना सौंदर्य है--
अछूता,
कुंवारा।
न तो मालियों ने संवारा है,
न शिक्षा है,
न संस्कार हैं,
न ज्ञान है।
और फिर भी
परम प्रकाश का अनुभव हुआ है।
शिक्षित-परिष्कृत व्यक्ति को जब
परम प्रकाश का अनुभव होता है
तो स्वभावतः
उसकी अभिव्यक्ति
जटिल होगी,
दुरूह होगी।
चाहे या न चाहे वह,
उसकी अभिव्यक्ति में
सिद्धांत की छाया होगी।
उसकी अभिव्यक्ति अनगढ़ नहीं हो सकती।
कबीर की अभिव्यक्ति अनगढ़ है।
ऐसा हीरा,
जो अभी-अभी
खान से निकला;
जौहरी के हाथ ही नहीं पड़ा।
न छैनी लगी,
न पहलू उभरे।
वैसा ही है जैसा परमात्मा ने बनाया था।
आदमी ने अभी अपने हस्ताक्षर नहीं किए।
इसलिए दूर हिमालय के पहाड़ों पर,
कुंवारे
जंगलों में
जो सन्नाटा है,
जो संगीत है,
जो गहन मौन है,
जो प्रगाढ़ शांति है--
वैसी ही कुछ कबीर में है।
कबीर के साथ ही
भारत में
बुद्धों की एक नई श्रृंखला शुरू होती है--
नानक,
रैदास,
फरीद,
मीरा,
सहजो,
दया।
यह एक अलग ही श्रृंखला है।
बुद्ध,
महावीर,
कृष्ण--
यह एक अलग ही श्रृंखला है।
बुद्ध, महावीर और कृष्ण
राजमहलों के गीत हैं।
कबीर,
नानक,
फरीद
झोपड़ों में बजी वीणा हैं।
राजमहल में गीत का पैदा हो जाना बहुत आसान;
न हो तो आश्चर्य,
हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
राजमहलों में जो रहा है,
ऊब ही जाएगा।
राजमहलों में जो जीया है,
जगत से उसकी
आसक्ति टूट ही जाएगी।
लाख सम्हालना चाहे,
बचाना चाहे,
बहुत मुश्किल है बचाना।
निर्धन को धन में आशा होती है।
लगता है मिल जाएगा धन
तो सब मिल जाएगा,
फिर पाने को कुछ और क्या!
लेकिन जिसको सब मिला है
उसकी आशा के लिए
कोई आकाश नहीं बचता।
उसके हाथ तो सिर्फ निराशा रह जाती है,
हताशा रह जाती है।
बुद्ध के पास सब था;
कबीर के पास कुछ भी नहीं।
बुद्ध के पास
क्या नहीं था?
कबीर के पास क्या था?
इसलिए बुद्ध अगर
संसार की
आपा-धापी से छूट गए,
यह दौड़ अगर व्यर्थ हो गई,
तो नहीं कोई आश्चर्य है।
राजमहलों में रहकर भी अगर कोई संन्यस्त न हो
तो महामूढ़ होगा,
मंदबुद्धि होगा।
सिर्फ इसका सबूत देगा।
झोपड़ों में रहकर भी...
कबीर तो जुलाहे थे।
आज कमाया, आज खाया।
कल कमाएंगे तो कल खाएंगे।
इतना भी नहीं था पास कि
कल के लिए भी निश्चिंत बैठ सकें।
ऐसी गरीबी में भी
जो देख सका संसार की व्यर्थता को,
उसके पास
महान प्रज्ञा होनी चाहिए।
बुद्ध देख सके तो ठीक,
महावीर देख सके तो ठीक;
लेकिन कबीर देख सके
तो बात अनहोनी है।
जैसा मैंने कहा कि महलों में सिर्फ बुद्धू ही
उलझे रह सकते हैं,
वैसे ही यह भी स्मरण रखना है
कि झोपड़ों में केवल अति प्रज्ञावान ही
बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकते हैं।
इसलिए कबीर से स्वभावतः
मेरा लगाव गहरा हो जाता है।
और चूंकि कबीर अनगढ़ हैं,
उनकी वाणी में एक चोट है।
बुद्ध की वाणी सुकुमार है,
फूल जैसी कोमल है।
कबीर की वाणी
यूं पड़ती है जैसे किसी ने
चट्टान सिर पर गिरा दी हो।
कबीरा खड़ा बाजार में
लिए लुकाठी हाथ!
लट्ठ लिए हाथ में खड़े हैं।
कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ।
घर बारे जो आपना
चले हमारे साथ।।
हो हिम्मत
घर को जला डालने की, राख कर देने की,
तो आओ,
हो लो हमारे साथ।
और लट्ठ लिए खड़े हैं, कहते हैं।
यह लुकाठी,
यह लट्ठ क्यों?
कबीर तो
यूं गिरते हैं जैसे
खड्ग की धार गर्दन पर गिरती हो।
बुद्ध भी काटते हैं,
लेकिन काटने में एक कुशलता है,
एक तरतीब है,
एक कला है।
सूक्ष्म मार है।
और कबीर
तो सीधे-सीधे उठाते हैं
कुल्हाड़ी
और दो टुकड़े कर देते हैं।
कबीर के वचनों में
आग है;
आग्नेय हैं उनके वचन।
बुद्ध के वचनों में
कोई शीतलता भी होगी।
कोई सांत्वना भी
खोज सकता है बुद्ध के वचनों में,
क्योंकि शीतल हैं।
कबीर के वचनों में सांत्वना खोजनी असंभव है;
वहां तो जलती क्रांति है।
वहां तो जो राख होने को तैयार हो
उसी के लिए निमंत्रण है।
फिर,
चूंकि बुद्ध
की सारी दीक्षा,
सारी शिक्षा
तर्क की थी,
एक राजकुमार की तरह
उन्हें शिक्षित-दीक्षित किया गया था,
इसलिए जब वे बोलते हैं
तो उनकी अभिव्यक्ति में
तर्क का आधार है,
दार्शनिकता है,
गणित है।
लेकिन कबीर
बेबूझ हैं,
पहेली हैं,
उलटबांसी हैं।
तर्क का उन्हें कुछ पता ही नहीं।
संगति का
उन्हें कुछ हिसाब ही नहीं।
चूंकि संगति बिठालने का उन्हें कुछ पता ही नहीं है,
इसलिए सत्य उनमें जिस
परिपूर्णता से प्रकट हुआ है
वैसा बुद्ध में नहीं हो सकता।
बुद्ध में तो सत्य कट-छंट कर आएगा,
निखार लेकर आएगा;
सत्य ऐसा आएगा
जो तुम्हारी बुद्धि को
रुचे-पचे।
सत्य में
बुद्ध के साथ राजी हो जाना
बहुत कठिन नहीं।
बुद्ध की पूरी प्रक्रिया बुद्धिवादी है,
रैशनल है।
इसलिए बुद्ध ने उन सारे प्रश्नों को ही
कभी उठाया नहीं,
इनकार ही कर दिया।
उन प्रश्नों को अव्याख्य कह दिया,
जिन प्रश्नों में विरोधाभास अनिवार्य है--
जिन्हें कहना हो
तो कबीर की उलटबांसी ही कहनी पड़ेंगी।
जैसे कबीर कहते हैं:
एक अचंभा मैंने देखा,
नदिया लागी आग!
बुद्ध नहीं कह सकते।
अचंभा उन्होंने भी देखा है,
नदिया में लगी आग उन्होंने भी देखी है,
लेकिन बुद्ध कह नहीं सकते।
यह उनकी शिक्षा-दीक्षा रोकेगी,
कि यह कैसे कहूं,
प्रमाण कहा से लाऊंगा,
तर्क कहां से जुटाऊंगा?
यह बात तो देखी।
इसलिए बुद्ध कहते हैं: मैं विधि बताऊंगा
कि तुम्हें भी ले चलूं उस नदी के किनारे,
फिर तुम्हीं देख लेना।
देख लोगे तो समझ लोगे।
मगर मैं न कहूंगा
कि नदिया में आग लगी;
वह बात ही मत पूछो।
चलने की राह पूछो,
पहुंचने का मार्ग पूछो,
विधि पूछो,
विधान पूछो;
मगर यह न पूछो
कि वह अनुभव क्या है।
कबीर
गांव के गंवार हैं;
बेफिक्री से कह देते हैं
कि नदी में आग लगी।
नदी में कहीं आग लगती है?
विवाद करने बैठोगे
तो कबीर मुश्किल में पड़ेंगे।
कैसे समझाएंगे कि नदी में आग लगी?
कबीर ऐसे बहुत से अचंभों की बातें करते हैं।
मछली चढ़ गई रूख!
वृक्ष पर मछली चढ़ गई।
मछली के कोई पैर होते हैं कि वृक्ष पर चढ़ जाए?
कभी सुना है, देखा कि वृक्ष पर मछली चढ़ जाए?
लेकिन कबीर जब कह रहे हैं तो उनका प्रयोजन है।
लेकिन प्रयोजन तर्कातीत है।
मगर कबीर को फिक्र कहां
कि बात तर्क में बैठती या नहीं,
गणित के ढांचे में समाती या नहीं!
कबीर को चिंता ही नहीं।
कबीर को
कोई ऐसी शिक्षा-दीक्षा नहीं मिली
जिसमें ढांचे में बिठालना हो,
चौखटों में तर्क के बिठालने का उनको कोई
स्मरण ही नहीं है।
अभी-अभी
पश्चिम के कुछ चित्रकारों ने
अपनी
कलाकृतियों में
फ्रेम लगाना, चौखट लगाना बंद कर दिया है।
पूछे जाने पर
उन चित्रकारों ने कहा
कि जगत में किसी चीज पर कोई फ्रेम तो होती नहीं।
जैसे तुमने एक
सूर्यास्त का चित्र बनाया,
तो सूर्यास्त पर तो कोई फ्रेम होती नहीं
कि यहां शुरू हुआ और यहां समाप्त हुआ।
न कहीं शुरू होता है, न कहीं समाप्त होता है;
फैलता ही चला जाता है दोनों तरफ अनंत में,
अनंत दिशाओं में फैलता चला जाता है;
सब आयामों में फैलता चला जाता है।
लेकिन जब तुम चित्र बनाओगे
तो तुम्हारे कैनवास की तो सीमा होगी।
फिर सीमा ही नहीं होगी,
तुम चित्र को फ्रेम भी दोगे--
सुनहला,
सुंदर,
बेशकीमती।
और फ्रेम देते ही--
इन चित्रकारों का कहना है--
कि तुम्हारा सूर्यास्त झूठ हो गया।
असली सूर्यास्त पर तो कोई फ्रेम न था, कोई चौखट न थी।
तुमने यह चौखट कैसे जड़ दी?
तर्क भी एक चौखट है,
सुंदर चौखट है।
बड़ी
सुनहली है।
खूब नक्काशी है उसमें।
बड़ा बारीक काम है,
बड़ी कारीगरी है।
लेकिन सत्य पर कोई चौखट नहीं होती।
बुद्ध ने और महावीर ने जो कहा है
उस पर तर्क की चौखट है।
मजबूरी थी उनकी।
उनको ही मुश्किल था यह कहना।
उनकी सारी शिक्षा-दीक्षा यूं थी
कि ऐसी बेबूझ बात जो कबीर कह सकते हैं--
बेशर्मी से,
कोई लाज नहीं, कोई संकोच नहीं--
वैसी बुद्ध, महावीर कैसे कहें?
उनको खुद ही अड़चन मालूम होती है
कि कोई अगर और कहता
तो हम विरोध करते,
तो हम कैसे कहें?
देखा तो उन्होंने भी है सूर्यास्त,
जिस पर कोई सीमा नहीं है।
देखा तो उन्होंने भी असीम को है,
अनंत को है,
जिसमें सारी असंगतियां तिरोहित हो जाती हैं
और सारे विरोध लीन हो जाते हैं।
लेकिन जब कहा है
तो बड़े तर्क से,
संवारे ढंग से कहा है।
इसलिए स्वभावतः
बुद्ध के पास
विचारशील
चिंतकों का
समूह इकट्ठा हुआ,
पंडित इकट्ठे हुए,
ज्ञानी इकट्ठे हुए,
दार्शनिक इकट्ठे हुए।
जितने दार्शनिकों को बुद्ध ने प्रभावित किया,
संभवतः किसी व्यक्ति ने कभी प्रभावित नहीं किया।
दुनिया में
दर्शनशास्त्र की जितनी शाखाएं-प्रशाखाएं पैदा हुईं,
वे सभी शाखा-प्रशाखाएं,
वे सभी अंग-उपांग
अकेले बुद्ध की धारा में भी पैदा हुए।
अगर बुद्ध के दर्शन की पूरी गंगा को
कोई समझ ले
तो इस दुनिया में कहीं भी
किसी भी तरह का कोई दर्शन पैदा हुआ हो,
वह उसकी समझ में आ जाएगा।
एक तरफ सारी दुनिया का दर्शनशास्त्र
और एक तरफ बुद्ध की अकेली गंगा,
दोनों समतोल हो जाते हैं।
फायदा भी हुआ बुद्ध को यूं
कि दार्शनिक इकट्ठे हुए।
और दार्शनिक निखार देते चले गए।
लेकिन बात जितनी निखरी उतनी हवाई हो गई,
उतनी वास्तविक न रह गई,
उतनी शाब्दिक हो गई।
यह नुकसान भी हुआ।
हर लाभ के साथ नुकसान जुड़े हैं।
बुद्ध की बड़ी छाप पड़ी।
सारा एशिया बुद्ध से प्रभावित हुआ।
कबीर के पास कौन इकट्ठा हुआ--
न कोई दार्शनिक आए,
न कोई चिंतक आए, न कोई विचारक आए;
उनको तो बात जंची ही नहीं।
उनको बात जंचती कैसे?
कबीर के पास कोई तर्क तो थे नहीं।
अब कबीर लाख कहें कि मैंने अपनी आंख से देखा है
कि नदी में आग लगी है,
मगर कौन मानेगा यह?
लोग कहेंगे पागल हो।
हां, लेकिन दीवाने इकट्ठे हुए।
तो नुकसान एक हुआ
कि दार्शनिक न आए,
चिंतक न आए,
विचारक न आए,
पंडित न आए;
लेकिन लंबे अरसे में यही नुकसान
लाभ का सिद्ध हुआ।
दीवाने आए,
मस्ताने आए,
परवाने आए,
होश गंवाने आए।
एक और ही तरह के लोगों की जमात बैठी।
तो कबीर के वचनों में
एक अखंडता है,
एक परिपूर्णता है।
लेकिन जब भी किसी चीज में परिपूर्णता होगी
तो उसे तर्क के पार जाना पड़ेगा;
उसे तर्क की चौखट को पीछे छोड़ना ही छोड़ना पड़ेगा।
इसलिए कबीर से मुझे प्रेम है।
और कबीर ने फिर एक नई
धारा को जन्म दिया--
उजड्ड
संतों की धारा।
इन उजड्ड संतों की भी अपनी खूबी है--
वही खूबी
जो जंगल के
सन्नाटे में होती है,
कि सागर में उठे तूफान में होती है,
कि पहाड़ पर लग गई आग में होती है।
वही कुंवारापन,
वही अलमस्ती,
वही खुमारी।
कबीर को यूं समझो
कि जैसे उमर खय्याम
और बुद्ध दोनों का मिलन हो गया;
जैसे उमर खय्याम और बुद्ध दोनों एक संगम बन गए।
तो कबीर ने अलमस्तों की,
फकीरों की, फक्कड़ों की
एक अलग
श्रृंखला को जन्म दिया।
उस श्रृंखला में भाषा भी
अपने ढंग से बनी।
उस भाषा को भी एक अलग ही नाम मिल गया--
सधुक्कड़ी।
सधुक्कड़ी भाषा में
फिर कोई तर्क नहीं पूछता।
तर्क पूछना हो
तो दार्शनिकों के पास जाओ।
कबीर के पास तो
सत्य को पीना हो
तो बैठो।
कबीर को न तो किताबों का कुछ पता है।
कहते हैं,
मसि कागद छुओ नहीं।
हाथ से ही नहीं छुआ कभी कागज
और स्याही।
उनके लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर।
वेद-कितेब,
इन दोनों का तो बहुत विरोध किया,
कि दोनों को अलग करो, हटाओ।
इन्हीं से बीच में बाधा बन रही है।
तुम्हारे और सत्य के बीच में
ये वेद और कितेब।
किताब का अर्थ कुरान
और बाइबिल।
इनको हटा दो।
शास्त्र हटा दो।
और द्वार खुला है
और देख लो अपनी आंख से
कि नदी में आग लगी है।
नदी में आग लगी है
का मतलब यह होता है
कि विरोधाभास मिल रहे हैं;
जो नहीं होना चाहिए वह हो रहा है।
ऐसा जगत यह रहस्यमय है।
इसे रहस्य-शून्य न करो।
इसे तर्क की चौखटों में बिठाकर
मारो मत,
सुखाओ मत;
इसके प्राणों को नष्ट न करो।