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सदा ही हर एक अवस्था में अद्वैत की भावना करनी चाहिए
पर गुरु के साथ अद्वैत की भावना नहीं करनी चाहिए समझाओ
सब जगह अद्वैत ब्रह्म है
ऐसी भावना करनी चाहिए
लेकिन गुरुदेव के साथ अद्वैत भावना नहीं करनी चाहिए
क्यों कि अद्वैत मतलब सब मैं ही हूँ
तो फिर शिष्टाचार को धक्का लगेगा गुरु के साथ अद्वैत की भावना करोगे तो
तो इसमें शास्त्र वचन है
या परियन्त जिवैत त्रियोत वंदया ईश्वरो गुरु वेदंतोश्च
जब तक जियें तीनों को आदर से देखें वन्दनीय है तीनो वन्दनीय है
ईश्वर गुरु और वेदांत
गुरु के साथ अद्वैत कि भावना करोगे तो
शिष्टाचार नहीं करोगे तो गुरु के हृदय में तुम्हारे लिए अहोभाव कैसे छलकेगा
सब जगह अद्वैत की भाव करो तो राग-द्वेष मिटेगा
लेकिन गुरु के साथ अद्वैत भाव करोगे तो उच्श्रलंक हो जाओगे
तो ये शास्त्र की कृपा है कि हमको उच्श्रलंक होने से बचाता है
ठीक है हरि ओम �