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एक नई शुरूआत: राष्ट्रपति ओबामा का मुस्लिम विश्व को संबोधन क़ाहिरा, मिस्र 4 जून, 2009
राष्ट्रपति ओबामा: बहुत धन्यवाद.
गुड आफ्टरनून
मैं सम्मानित हूं कि शाश्वत नगरी क़ाहिरा में हूं,
और दो विशिष्ट संस्थानों का अतिथि हूं
एक हज़ार से भी अधिक वर्ष से अल-अज़हर इस्लामी शिक्षा की
एक मशाल बनकर खड़ा है और एक शताब्दी से भी अधिक समय से
क़ाहिरा विश्वविद्यालय मिस्र की प्रगति का एक स्रोत रहा है।
आप दोनों मिलकर परम्परा और प्रगति के बीच सामंजस्य का
का प्रतिनिधित्व करते हैं।
मैं आपके और मिस्र की जनता के अतिथि सत्कार के लिए
के लिए बहुत आभारी हूं।
और मुझे इस बात का गर्व है कि मैं अमरीकी जनता की सद्भावना अपने साथ लाया हूं,
और अपने देश के मुस्लिम समुदायों का शांति अभिवादन
लाया हूं----“अस्सलाम आलेकुम”
--(तालियाँ)
हम एक ऐसे समय पर मिल रहे हैं जो कि अमेरिका और विश्व भर के
मुस्लिमों के बीच भारी तनाव का समय है —
तनाव जिसकी जड़ें उन ऐतिहासिक ताक़तों में जमी हुई हैं जो नीति सम्बन्धी किसी भी
मौजूदा बहस से कहीं परे तक जाती हैं।
इस्लाम और पश्चिम के बीच के सम्बन्धों में सह –अस्तित्व और सहयोग की
शताब्दियां शामिल हैं, तो साथ ही संघर्ष और धार्मिक युद्ध भी।
धार्मिक युद्ध भी।
निकट अतीत में उपनिवेशवाद ने इस तनाव को सींचा जिसने बहुत से मुसलमानों को
अधिकारों और अवसरों से वंचित रखा
और उस शीत युद्ध ने सींचा जिसमें देशों को, उनकी अपनी आकांक्षांओं
की परवाह किये बग़ैर, अक्सर
प्रतिनिधियों के रूप में देखा गया।
इसके अतिरिक्त, आधुनिकता और वैश्वीकरण की वजह से
आए व्यापक परिवर्तन के कारण बहुत से मुसलमान पश्चिम को इस्लाम की
परम्पराओं के विरोधी के रूप में देखने लगे ।
मुस्लिमों के एक छोटे अल्पसंख्यक खंड के
हिंसक अतिवादियों ने इन तनावों का अनुचित लाभ उठाया है।
11सितम्बर, 2009 के हमलों और नागरिकों के ख़िलाफ़ हिंसा के
इन अतिवादियों के लगातार जारी प्रयासों के कारण मेरे देश में
कुछ लोगों को यह लगने लगा कि इस्लाम न केवल अमेरिका
और पश्चिमी देशों का, बल्कि मानवाधिकारों
का भी अनिवार्य रूप से विरोधी है।
इस सब से और अधिक भय तथा अविश्वास पैदा हुआ है।
जबतक हमारे मतभेद हमारे सम्बन्धों को परिभाषित करते रहेंगे,
हम उन लोंगो को बल प्रदान करेंगे जो शांति के बजाए घृणा के बीज बोते हैं,
जो संघर्ष को बढ़ावा देते हैं, सहयोग को नहीं,
जो हमारे सभी लोगों को खुशहाली प्राप्त करने में सहायता कर सकता है।
सन्देह और फूट का यह ऐसा चक्र है जिसका हमें अंत करना होगा।
मैं संयुक्त राज्य अमेरिका और दुनिया भर के मुसलमानों
के बीच एक नई शुरूआत की खोज में यहां आया हूं
जो पारस्परिक हित और पारस्परिक सम्मान पर आधारित हो-
जो इस सत्य पर आधारित हो कि अमरीका और इस्लाम अनन्य नहीं
कि जहां एक हो वहां दूसरा नहीं, और उनमें प्रतिस्पर्धा ज़रूरी नहीं है।
बल्कि उनमें समानताएं हैं, समान सिद्धांतों में विश्वास है —
न्याय और प्रगति के सिद्धांत,
सहिष्णुता और हर मानव की मान-प्रतिष्ठा के सिद्धांत।
मैं यह जानता हूँ कि परिवर्तन रातोंरात नहीं हो सकता।
मै जनता हूँ कि इस भाषण का काफी प्रचार किया गया है,
लेकिन कोई भी एक भाषण वर्षों के अविश्वास को नहीं मिटा सकता,
ना ही मैं इस शाम जितना समय मेरे पास है उसमें उन सभी
पेचीदा सवालों के जवाब दे सकता हूँ जो हमें इस मुक़ाम तक ले आये हैं।
लेकिन मुझे विशवास है कि आगे बढ़ने के लिये हमें
खुले रूप में वह कहना होगा जो हमारे दिलों में है, और जो
अक्सर बंद दरवाज़ों के पीछे ही कहा जाता है।
एक दूसरे की बात सुनने का, एक दूसरे से सीखने का,
एक दूसरे का सम्मान करने का, और सहमति का
का आधार ढ़ूंढ़ने का सतत प्रयास होना चाहिये।
जैसा कि पवित्र कुरान हमें बताती है “ईश्वर के प्रति सजग रहो
और हमेशा सच बोलो
(तालियाँ) .
आज मैं यही करने की कोशिश करूंगा---
जितना ज़्यादा से ज़्यादा कर सकता हूं, सच बोलूँगा,
जो बड़ा काम हमारे सामने है उसके आगे नतमस्तक होते हुए
और मनमें दृढ़ विश्वास के साथ कि मानवों के रूप में हमारे जो साझे हित हैं
वे उन ताक़तों से कहीं अधिक शक्तिशाली हैं जो हमें एक दूसरे से जुदा करती हैं।
इस दृढ़ विश्वास की जड़ें आंशिक रूप में मेरे अपने अनुभव में जमी हुई हैं।
मैं एक ईसाई हूं। मेरे पिता केन्या के एक ऐसे परिवार से हैं
जिसमें मुसलमानों की पीढ़ियां शामिल हैं।
एक बालक के रूप में मैंने कई वर्ष इंडोनेशिया में बिताए
और सुबह भोर के समय और शाम को सूरज छुपने के समय मै अज़ान सुना करता था।
एक युवक के रूप में, मैंने शिकागो के समुदायों में काम किया
जहां बहुतों ने अपने मुस्लिम मज़हब में गरिमा और शांति प्राप्त की।
इतिहास का छात्र होने के नाते, मैं यह भी जानता हूं कि सभ्यता पर
पर इस्लाम का बड़ा ऋण है।
अल-अज़हर विश्वविद्यालय जैसे स्थलों पर वह इस्लाम ही था
जिसने कई शताब्दियों तक शिक्षा की मशाल जलाए रखी,
जिससे यूरोप के पुनर्जागरण
और ज्ञानोदय का मार्ग प्रशस्त हुआ।
यह मुस्लिम समुदायों का नवाचार ही था (तालियाँ)
जिसने बीजगणित के नियमों का विकास किया,
हमारे चुम्बकीय दिग्सूचक और जहाज़रानी के उपकरणों,
लेखनी और मुद्रण पर हमारी प्रवीणता
और बीमारी कैसे फैलती है और उसे कैसे दूर किया जा सकता है
इस बारे में हमारी समझबूझ का विकास किया।
इस्लामी संस्कृति ने हमें राजसी मेहराब और गगनचुंबी मीनारें दी हैं,
शाश्वत काव्य और दिल में बस जानेवाला संगीत दिया है,
शानदार हस्तलेख और शांतिपूर्ण चिंतन के स्थल दिए हैं।
और सम्पूर्ण इतिहास में इस्लाम ने शब्दों और कृत्यों के ज़रिये
धार्मिक सहिष्णुता और जातीय समानता की
संभावनाओं को प्रर्दशित किया है।
(तालियाँ)
मैं यह भी जानता हूं कि इस्लाम अमेरिका की कहानी
का भी हमेशा से हिस्सा रहा है।
मेरे देश को मान्यता देने वाला पहला देश था – मोरक्को।
सन् 1796 में त्रिपोली की संधि पर हस्ताक्षर करते समय
हमारे दूसरे राष्ट्रपति जौन ऐडम्स ने लिखा था
“संयुक्त राज्य अमेरिका के चरित्र में मुसलमानों के क़ानूनों,
धर्म या शांतिमयता के विरुद्ध कोई बैर भाव नहीं है”
हमारी स्थापना के समय से अमरीकी मुसलमानों ने
संयुक्त राज्य अमेरिका को समृद्ध बनाया है।
वे हमारे युद्धों में लड़े हैं, सरकार की सेवा की है,
नागरिक अधिकारों के लिये खड़े हुए हैं,
व्यापार शुरू किये हैं, हमारे विश्वविद्यालयों में
पढ़ाया है, हमारे खेल के मैदानों में शानदार प्रदर्शन किये हैं,
नोबेल पुरस्कार जीते हैं, हमारी सबसे ऊंची इमारतों का निर्माण किया है,
और ओलम्पिक मशाल जलायी है।
जब पहला मुसलमान-अमरीकी हाल ही में संसद के लिये
चुना गया और संविधान की रक्षा करने की शपथ
लेने के लिये उसी क़ुरान का इस्तेमाल किया जिसे जिसे हमारे संस्थापक
पितामहों में से एक – टॉमस जेफ़रसन – ने अपने निजी पुस्तकालय में रखा हुआ था।
--(तालियाँ)
तो इस क्षत्र में आने से पहले जहां इस्लाम उद्घाटित हुआ,
तीन महाद्वीपों में इस्लाम से मेरा परिचय हो चुका है।
यह अनुभव मेरे इस दृढ़ विश्वास को निर्देशित करता है कि
कि अमेरिका और इस्लाम के बीच साझेदारी इस्लाम क्या है इस पर आधारित होनी चाहिये,
जो वह नहीं है उस पर नहीं।
और मैं अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में इसे अपने दायित्व का
एक अंग मानता हूं कि जहां कहीं भी इस्लाम की नकारात्मक रूढ़िबद्ध
रूढ़िबद्ध धारणाएं दिखाई दें, उनके विरुद्ध लडूं ।
(तालियाँ)
किंतु यही सिद्धांत अमेरिका के बारे में मुस्लिम अवधारणाओं पर भी
of America. लागू होना चाहिये।
(तालियाँ) जैसे कि मुसलमान एक अपरिष्कृत रूढ़िबद्ध
धारणा में फिट नहीं होते, उसी तरह अमेरिका भी
स्वहित-संलग्न साम्राज्य की अपरिष्कृत रूढ़िबद्ध धारणा का प्रतीक नहीं है।
संयुक्त राज्य अमेरिका प्रगति के विश्व के
सबसे महान स्रोतों में से एक रहा है।
मेरा देश एक साम्राज्य के विरुद्ध क्रांति से जन्मा था।
हमारी स्थापना इस आदर्श के अंतर्गत हुई थी कि सभी को समान बनाया गया है,
और हमने इन शब्दों को सार्थक करने के लिये सदियों संघर्ष किया है
और ख़ून बहाया है – अपनी सीमाओं के भीतर
और विश्वभर में।
इस धरती के हर कोने से आयी हर संस्कृति ने हमें रूप दिया है
और हम इस सीधी-सादी विचारधारा को समर्पित हैं- ई प्लूरिबस उनम
“अनेक में से, एक” ।
इस तथ्य को लेकर बहुत कुछ कहा सुना गया है कि एक अफ्रीकी-अमरीकी
जिसका नाम बरक हुसैन ओबामा है,
अमेरिका का राष्ट्रपति चुना जा सका।
(तालियाँ)
लेकिन मेरी व्यक्तिगत कहानी इतनी अनूठी नहीं है।
सभी लोगों के लिये अवसर का स्वप्न
अमेरिका के हर व्यक्ति के लिए साकार नहीं हुआ है, लेकिन इसकी आशा हमारे
तट पर आनेवाले सभी लोगों के लिए विद्यमान है – और इसमें लगभग सत्तर लाख अमरीकी मुसलमान शामिल हैं
जो आज हमारे देश में मौजूद हैं। और असल में अमरीकी औसत के मुकाबले
अमरीकी मुसलमान अधिक ऊंचे स्तर की
आय और शिक्षा का आनंद ले रहे हैं ।
-(तालियाँ)
इसके अतिरिक्त, अमेरिका में आज़ादी को अपने धर्म का पालन करने की आज़ादी से
अलग नहीं किया जा सकता।
यही वजह है कि हमारे राष्ट्र के हर राज्य में एक मस्जिद है
और हमारी सीमाओं के भीतर 1,200 से भी अधिक मस्जिदें हैं।
यही कारण है कि अमरिका सरकार ने हिजाब पहनने के महिलाओं और लड़कियों के
अधिकार की रक्षा के लिये और उन्हें ऐसे अधिकार से वंचित करनेवालों को
सज़ा देने के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाया
तो इस बारे में कोई (तालियाँ)..
..तो इस बारे में कोई सन्देह नहीं रहना चाहिये कि इस्लाम अमेरिका का अंग है
और मेरा विश्वास है कि अमेरिका ने अपने भीतर इस सत्य को आत्मसात कर रखा है
कि जाति, धर्म या जीवन में स्थान कुछ भी हो,
हम सब की यह साझी आकांक्षाएं हैं –
शांति और सुरक्षा में रहें, शिक्षा प्राप्त करें और सम्मान के साथ काम करें,
अपने परिवारों, अपने समुदायों
और अपने ईश्वर से प्यार करें ।
हममें ये सब चीज़ें साझी हैं।
और सम्पूर्ण मानवता की यही आशा है ।
यह सही है कि अपनी साझी मानवता को पहचान लेने से ही हमारा काम
ख़त्म नहीं हो जाता। वास्तव में यह तो सिर्फ़ शुरूआत है।
केवल शब्द हमारी जनता की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकते।
आनेवाले वर्षों में हमें निडर होकर कार्य करना होगा।
और हमें इस बात को समझते हुए काम करना होगा कि
विश्वभर में लोगों के सामने जो चुनौतियां हैं वे समान हैं, और अगर हम इन चुनौतियों का सामना करने में
असफल रहते हैं तो हम सबको नुक़सान होगा। अपने हाल के अनुभव से हमने यह देख लिया है
कि जब बैंक एक देश में ऋण नहीं दे पाते, तो हर जगह की खुशहाली को आघात पहुंचाता है।
जब एक नया फ्लू इन्सान को बीमार करता है तो हम सबके लिये जोखिम पैदा हो जाता है।
जब एक राष्ट्र परमाणु अस्त्र हासिल करने में लग जाता है
तो सभी राष्ट्रों के लिए परमाणु आक्रमण का खतरा बढ़ जाता है।
जब हिंसक आतंकवादी एक पहाड़ी इलाके में सक्रिय होते हैं
तो सागर पार के लोगों के लिये ख़तरा खड़ा हो जाता है।
और जब बौसनिया और दारफुर में लोगों की हज़ारों की संख्या में हत्या की जाती है
तो यह हमारी सामूहिक अंतरात्मा पर दाग़ बन जाता है।
--(तालियाँ)
21 वीं शताब्दी में इस विश्व में साझेदारी होने का यह अर्थ है।
मानव होने के नाते एक-दूसरे के प्रति
यह है हमारी ज़िम्मेदारी
यह गले लगाने के लिये एक कठिन ज़िम्मेदारी है।
मानव इतिहास अक्सर ऐसे राष्ट्रों और क़बीलों
और हाँ, धर्मों -- की दास्तान रहा है जिन्हों ने अपने स्वयं के हितों के लिये
एक-दूसरे को अपने क़ब्ज़ों में लिया।
लेकिन इस नए युग में ऐसे नज़रिए स्व-पराजयकारी हैं।
हमारी परस्पर अंतर-निर्भरता को देखते हुए,
ऐसा कोई भी विश्व ढ़ांचा जिसमें एक देश या लोगों के एक समूह को
किसी दूसरे से ऊपर रखा जाए अवश्यम्भावी रूप से असफल हो जाएगा।
तो हम अतीत के बारे में चाहे कुछ भी सोचें, हमें उसका बन्दी नहीं बनना चाहिये।
हमें अपनी समस्याओं का हल साझेदारी के ज़रिये खोजना होगा
और हमारी प्रगति में सबकी हिस्सेदारी होनी चाहिए।
-- (तालियाँ)
इसका यह अर्थ नहीं है कि हम तनाव के स्रोतों ।
की अनदेखी करें।
असल में बात ठीक विपरीत है: हमें खुल कर
उनका सामना करना होगा।
इसी भावना के साथ, जितने साफ़ और सीधे शब्दों में कह सकता हूं,
उन विशिष्ट विषयों के बारे में बात करना चाहता हूं जिनका
हमें मिलकर सामना करना होगा ।
पहला विषय जिसका हमें सामना करना है
अपने हर रूप में हिंसक अतिवाद।
अंकरा में मैंने यह स्पष्ट कर दिया था कि अमेरिका का इस्लाम से न तो कोई युद्ध है,
और न कभी होगा।
-- (तालियाँ)
लेकिन हम उन हिंसक अतिवादियों का मुक़ाबला अवश्य करेंगे जो
हमारी सुरक्षा के लिए गम्भीर ख़तरा प्रस्तुत करते हैं।
क्यों कि हम भी उस चीज़ को नकारते हैं, जिसे सभी धर्मों के लोग
नकारते हैं: निर्दोष पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की हत्या।
राष्ट्रपति के नाते मेरा पहला दायित्व है
देशवासियों की रक्षा
अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति अमेरिका के लक्ष्यों
और मिल कर काम करने की हमारी आवश्यकता दोनों को प्रदर्शित करती है।
सात वर्ष से भी अधिक समय पहले अमरीका ने व्यापक अंतर्राष्ट्रीय समर्थन के साथ
अल-क़ायदा औए तालिबान का पीछा किया।
हम अपनी पसंद से वहां नहीं गये थे, बल्कि मजबूरी से गये थे।
जानता हूं कि कुछ लोग 9/11 की घटनाओं के बारे में सवाल उठाते हैं,
यहाँ तक कि उसे सही ठहराने की कोशिश करते हैं।
लेकिन हमें यह बात साफ़ तौर पर समझ लेनी चाहिये:
अल-क़ायदा ने 11 सितम्बर 2001 को लगभग 3,000 लोगों को मार डाला।
जो लोग शिकार हुए वे अमेरिका और कई अन्य राष्ट्रों के
निर्दोष स्त्री-पुरुष और बच्चे थे जिन्होंने किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए कुछ नहीं किया था ।
लेकिन फिर भी अल-क़ायदा ने निर्मम तरीके से इन लोगों की हत्या कर दी.
इस हमले का श्रेय लेने का दावा किया और वह बार–बार यह कहता आ रहा है
कि वह फिर विशाल पैमाने पर हत्या करने के लिये कृत संकल्प है।
बहुत से देशों में उनके साथी हैं और वे अपनी पहुंच
बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं।
यह कोई विचार नहीं है कि जिस पर बहस की जाए-
ये तथ्य हैं जिनसे निबटना होगा।
इस बारे में कोई सन्देह नहीं रहना चाहिये: हम अफ़ग़ानिस्तान में
अपने सैनिक नहीं रखना चाहते।
हम वहां कोई सैनिक अड्डे स्थापित नहीं करना चाहते।
वहां अपने युवा स्त्री पुरुषों को खोना
दिलको विचलित कर देने वाली बात है
इस संघर्ष को जारी रखना ख़र्चीला भी है और राजनीतिक रूप से कठिन भी।
हम बड़ी खुशी से वहां से अपने एक एक सैनिक को वापस स्वदेश ले जाएं
अगर हमें यह विश्वास हो सके कि अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान
में ऐसे हिंसक चरमपंथी नहीं हैं जो जितने ज़्यादा से ज़्यादा अमरीकियों
को मार सकते हैं, मार डालने पर आमदा हैं।
लेकिन अभी वे ऐसा कर नहीं पाए हैं
यही कारण है कि हम 46 देशों के साथ
साझेदारी कर रहे हैं।
और इस पर आने वाली लागत के बावजूद अमेरिका की वचनबद्धता
कमज़ोर नहीं होगी।
असल में हम से किसी को भी इन अतिवादियों को बर्दाश्त नहीं करना चाहिये।
उन्होंने बहुत से देशों में लोगों की हत्याएं की
उन्होंने विभिन्न धर्मों के लोगों को मारा है, और किसी भी अन्य धर्म के मुक़ाबले
उन्होंने ज़्यादा मुसलमानों को मारा है।
उनके कृत्यों का मानवों के अधिकारों,
राष्ट्रों की प्रगति
इस्लाम से कोई तालमेल नहीं है।
पवित्र क़ुरान हमें यह पाठ पढ़ाती है कि जो कोई किसी निर्दोष को मारता है
वह ऐसा है जैसे उसने सारी मानवता को मार डाला;
-- (तालियाँ)
और जो कोई किसी इंसान को बचाता है, वह ऐसा है
जैसे उसने सारी मानवता को बचा लिया।
--(तालियाँ) ।
एक सौ करोड़ से भी अधिक लोगों का ख़ूबसूरत मज़हब
इन कुछेक लोगों की संकीर्ण घृणा से कहीं अधिक बड़ा है।
इस्लाम हिंसक अतिवाद से लड़ने में समस्या का हिस्सा नहीं है,
यह शांति को बढावा देने में एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
हम यह भी जानते हैं कि अकेले सैन्य शक्ति से ही अफ़ग़ानिस्तान
और पाकिस्तान में समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता।
इसीलिए पाकिस्तानियों के साथ मिलकर स्कूल और अस्पताल
व्यापार और सड़कें बनाने पर हम अगले पांच सालों तक
हर वर्ष 1.5 बिलियन डॉलर ख़र्च करने और जो लोग बेघर हो गये हैं
उनकी सहायता के लिए सैकडों मिलियन डॉलर खर्च करने की योजना बना रहे हैं
और यही कारण है कि हम अफ़ग़ान लोगों को उनकी अर्थव्यवस्था के विकास
और लोगों की ज़रूरत की सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए
2.8 बिलियन डॉलर से भी अधिक की सहायता दे रहे हैं।
मैं ईराक के बारे में भी बात करना चाहता हूं।
अफ़ग़ानिस्तान के विपरीत ईराक का युद्ध ऐसा था जिसे चुना गया
और जिसने मेरे देश में और विश्वभर में कड़े मतभेद पैदा किये हैं।
हालांकि मैं यह मानता हूं कि अंतत: ईराकी लोगों के लिए यह अच्छा है
कि वे सद्दाम हुसैन के आतंक से मुक्त हैं,
लेकिन मैं यह भी मानता हूं कि ईराक की घटनाओं ने हमें कूटनीति का
इस्तेमाल करने की आवशयकता का और जब भी संभव हो, अपनी समस्याओं के समाधान के लिए
अंतर्राष्ट्रीय सहमती बनाने की आवश्यकता का स्मरण कराया है
-- (तालियाँ)।
वास्तव में हम अपने महान राष्ट्रपतियों में से एक, टॉमस जेफ़र्सन के शब्दों को याद कर सकते हैं
जिन्हों ने कहा था- “मैं आशा करता हूं कि हमारी शक्ति के साथ साथ हमारी बुद्धिमत्ता भी बढ़ेगी
जो हमें यह पाठ पढ़ायेगी कि हम अपनी शक्ति का जितना कम इस्तेमाल करें
उतना ही अच्छा होगा”।
आज अमेरिका की दोहरी ज़िम्मेदारी है: ईराक को ईराकियों के लिए छोड़ दें
और एक बेहतर भविष्य के निर्माण में उनकी मदद करें
और मैंने ईराकी लोगों से यह स्पष्ट कह दिया है (तालियाँ)…
मैंने ईराकी लोगों से कह दिया है कि हम वहां कोई अड्डे नहीं चाहते,
उनकी भूमि या उनके संसाधनों पर हमारा कोई दावा नहीं है।
ईराक की प्रभुसत्ता उसकी अपनी है।
-- (तालियाँ) -
इसीलिए मैंने आदेश दिया है कि अगले अगस्त तक ईराक से हमारी
सभी लड़ाका ब्रिगेड हटा ली जाएं।
इसीलिए हम ईराक की लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार के साथ किए गए
इस समझौते का सम्मान करेंगे कि जुलाई तक ईराकी शहरों से
लड़ाका सैनिक हटा लें और
सन् 2012 तक ईराक से अपने सभी सैनिक हटा लें
-- (तालियाँ)।
हम ईराक के अपने सुरक्षा बलों को प्रशिक्षण देने और
अर्थव्यवस्था का विकास करने में सहायता करेंगे।
लेकिन हम एक सुरक्षित तथा एकीकृत ईराक का एक साझेदार के रूपमें समर्थन करेंगे,
संरक्षणदाता के रूप में कभी नहीं।
और अंत में यह कि जैसे अमेरिका अतिवादियों द्वारा हिंसा को कभी बर्दाश्त नहीं करेगा
वैसे ही हमें कभी अपने सिद्धांत भी बदलने या भूलने नहीं चाहिये।
9/11 की घटना हमारे देश के लिये एक भयंकर आघात थी।
इसने जिस भय और क्रोध को जन्म दिया वह समझ में आता है,
लेकिन कुछ मामलों में इसके परिणाम में हमने अपनी परम्पराओं,
अपने आदर्शों के विपरीत क़दम उठाये। ।
हम दिशा बदलने के लिये ठोस क़दम उठा रहे हैं।
मैंने संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा यातना के इस्तेमाल की मनाही
कर दी है और मैंने आदेश दे दिया कि ग्वानटनामो खाड़ी स्थित क़ैदख़ाना
अगले वर्ष के पूर्वार्ध तक बंद कर दिया जाय।
-- (तालियाँ)।
अन्य देशों की प्रभुसत्ता और क़ानून के शासन का सम्मान करते हुए
अमेरिका अपनी हिफ़ाज़त करेगा।
और हम ऐसा मुस्लिम समुदायों की साझेदारी में करेंगे जिनके
जिनके लिये ख़ुद भी ख़तरा है-
क्यों कि जितनी जल्दी अतिवादियों को अलग-थलग किया जाता है और मुस्लिम समुदायों
में उन्हें स्वागत-योग्य नहीं माना जाता उतनी ही जल्दी हम सुरक्षित होंगे और उतनी ही जल्दी अमरीकी सैनिक घर लौट आयेंगे।
तनाव का दूसरा बड़ा स्रोत जिसकी मैं चर्चा करूंगा वह है ।
इस्रायलियों, फिलिस्तीनियो
और अरब विश्व के बीच की स्थिति
इस्रायल के साथ अमरीका के मज़बूत रिश्ते सर्वविदित है।
यह बंधन अटूट है।
यह सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रिश्तों पर
और इस मान्यता पर आधारित है कि यहूदी राष्ट्र की महत्वाकांक्षा की जड़ें
उस त्रासद इतिहास से जुड़ी हुई है जिससे इंकार नहीं किया जा सकता।
विश्व भर में, यहूदी लोगों को शताब्दियों तक सताया गया
और यहूदी विरोध की पराकाष्टा हुई,
एक अभूतपूर्व नर-संहार से।
कल मैं बूकनबॉल्ड की यात्रा करूंगा
जो उन शिविरों के ताने-बाने का अंग था जहां तद्कालीन जर्मन शासन द्वारा यहूदियों को
दास बनाया जाता था, यातनाएं दी जाती थी, गोली मार दी जाती थी या गैस सुंघा कर मार डाला जाता था।
60 लाख यहूदियों को मार डाला गया - यह संख्या
आजके इस्रायल की संपूर्ण यहूदी आबादी से भी अधिक है।
इस तथ्य को नकारना आधारहीन, अनभिज्ञ
और घृणापूर्ण है।
इस्रायल को नष्ट करने की धमकी देना या यहूदियों के बारे में
घृणास्पद रूढ़िवादी बातों को दोहराना, इस्रायलियों के मन में
सबसे ज़्यादा दुखदायी स्मृतियों को झकझोर देता है और
उस शांति को अवरुद्ध कर देता है
जिसका इस क्षेत्र के लोगों को हक़
दूसरी ओर, इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि फिलिस्तीनी लोगों ने भी - 00:25:05.300,00:25:09.667 जिनमें मुसलमान भी हैं और ईसाई भी –
एक राष्ट्र की खोज में बहुत कुछ सहा है।
60 से अधिक वर्ष से उन्होंने विस्थापित होने के दर्द को झेला है।
पश्चिम तट, ग़ाज़ा और आसपास की भूमि पर शरणार्थी शिविरों में बहुत से लोग
शांति और सुरक्षा के उस जीवन की प्रतीक्षा कर रहे हैं जो वे
कभी प्राप्त नहीं कर पाये।
वे प्रतिदिन छोटे- बड़े अपमान झेलते हैं
जो दूसरों के आधिपत्यों से पैदा होते हैं।
तो इसमें भी कोई संदेह नहीं होना चाहिये
की फिलिस्तीनी लोगों की स्थिति भी असहनीय है।
अमेरिका समान अवसर और
अपना खुद का देश होने की फिलिस्तीनियों
की वैध आकांक्षा से मुंह नहीं मोड़ेगा।
-- (तालियाँ)
वर्षों से गतिरोध रहा है। दो समुदाय
जिनकी वैध आकांक्षाएं हैं, दोनों का दुखद इतिहास रहा है
जो समझौतों को पहुंच में आने से रोकता है।
एक दूसरे पर उंगली उठाना आसान है -
फिलिस्तीनी इस्रायल की स्थापना के कारण पैदा हुए विस्थापन की ओर इशारा कर सकते हैं,
और इस्रायली अपने पूरे इतिहास में अपनी सीमाओं के भीतर से
और बाहर से निरंतर हमलों और दुश्मनी की ओर इशारा कर सकते हैं।
लेकिन अगर हम इस संघर्ष को
केवल इस ओर से या उस ओर से देखें
तो हमें सच्चाई नज़र नहीं आ सकेगी – एक मात्र समाधान यही है
कि दो राज्यों के माध्यम से दोनों पक्षों की आकांक्षाएं पूरी हो जिसमें
कि इस्रायली और फिलिस्तीनी दोनों
शांति और सुरक्षा के साथ रह सकें
(तालियाँ)--
यह इस्रायल के हित में है, फिलिस्तीनियों के हित में है,
अमेरिका के हित में है, और विश्व के हित में है
यही कारण है कि मैं व्यक्तिगत रूप से इसी परिणाम की प्राप्ति के लिए काम करूंगा,
उस पूरे धैर्य के साथ जिसकी
इस काम के लिए ज़रूरत है।
जिन दायित्वों (तालियाँ)।
रोड-मैप योजना के अंतर्गत पक्षों ने जिन दायित्वों को स्वीकारा है वे स्पष्ट हैं। ।
शांति की स्थापना के लिए, उनके लिए भी
और हम सबके लिए भी – अपने दायित्वों को निभाने का समय आ गया है।
एक ओर फिलिस्तीनियों को हिंसा को त्यागना होगा।
हिंसा और हत्या के ज़रिये प्रतिरोध ग़लत है
और सफल नहीं होता।
शताब्दियों तक अमरीका में कालों ने
दासों की रूप में कोड़े खाये और पृथकता की शर्मिंदगी सही
लेकिन अंतत: जिसने पूर्ण और समान अधिकार जीते वह हिंसा नहीं थी।
वह था शांतिपूर्ण और दृढ़ निश्चय के साथ उन आदर्शों के प्रति आग्रह
जो अमरीका की स्थापना के केन्द्र में है।
यही कहानी दक्षिण अफ्रीका से लेकर दक्षिण एशिया तक के लोग
और पूर्वी यूरोप से लेकर इंडोनेशिया तक के लोग दोहरा सकते हैं ।
यह कहानी इस सीधे सादे सच की है: हिंसा कहीं नहीं ले जाती, उससे कुछ हासिल नहीं होता।
यह न तो साहस का संकेत है और न शक्ति का कि
सोते हुए इस्रायली बच्चों पर रॉकेट दागे जाये या एक बस पर वृद्ध महिलाओं को बम से उड़ा दिया जाय।
इससे नैतिक अधिकार हासिल नहीं होता,
इससे तो वह अधिकार हाथ से निकल जाता है।
अब समय आ गया है जब फिलिस्तीनियों को इस बात पर ध्यान केन्द्रित करना है कि वे क्या निर्मित कर सकते हैं।
फिलिस्तीनी प्राधिकरण को शासन चलाने की अपनी क्षमता का विकास करना होगा,
ऐसे संस्थानों के ज़रिये जो लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करें।
हमास को कुछ फिलिस्तीनी लोगोंमें समर्थन प्राप्त है
लेकिन उनकी ज़िम्मेदारियां भी हैं
और फिलिस्तीनी महत्वाकांक्षाओ में कोई भूमिका निभाने के लिये और
और फिलिस्तीनियों को एकजुट करने के लिये
हमास को हिंसा का अंत करना होगा,
पिछले समझौतों का पालन करने से इंकार को त्यागना होगा
और इस्रायल के अपना अस्तित्व बनाए रखने के अधिकार को मान्यता देनी होगी।
साथ ही इस्रायल को यह स्वीकार करना होगा
कि जैसे इस्रायल के अपना अस्तित्व बनाए रखने के अधिकार को नहीं नकारा जा सकता
वैसे ही फिलिस्तीनियों के अधिकार को भी नहीं नकारा जा सकता
अमेरिका उन लोगों की वैधता स्वीकार नहीं करता जो इस्रायल को सागर में धकेल देने की बात करते हैं,
लेकिन हम इस्रायली बस्तियां जारी रहने की वैधता को भी स्वीकार नहीं करते।
-- (तालियाँ)।
यह निर्माण-कार्य पिछले समझौतों का उल्लंघन करता है
और शांति प्राप्त करने के प्रयासों में व्यवधान पैदा करता है।
अब समय आ गया है जब ये बस्तियां बसाना बंद होना चाहिए।
-- (तालियाँ)।
इस्रायल को अपने इस दायित्व को भी निभाना चाहिए
की फिलिस्तीनी आराम से रह सकें, काम कर सकें, और अपने समाज का विकास कर सकें
ग़ाज़ा में निरंतर बना हुआ मानवीय संहार जहां फिलिस्तीनी परिवारों को तहस–नहस करता है,
वहीं यह इस्रायल की सुरक्षा के हित में भी नहीं है
और यही बात पश्चिमी तट पर
अवसरों के निरंतर अभाव के बारे में भी सही है।
फिलिस्तीनी लोगों के दैनिक जीवान में प्रगति
शांति की राह का एक अंग होनी चाहिए
और इस्रायल को ऐसी प्रगति संभव बनाने के लिए ठोस क़दम उठाने चाहिये।
अंतिम बात यह कि अरब देशों को यह समझना चाहिए की
अरब- शांति पहल एक महत्वपूर्ण शुरूआत थी
उनकी ज़िम्मेदारियों का अंत नहीं।
आइंदा अरब इस्रायली संघर्ष का, अरब राष्ट्रों के लोगों का
अन्य समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए
इसकी बजाय यह इस बात का कारण बनना चाहिये की
की फिलिस्तीनी लोगों की ऐसे संस्थान विकसित करने में मदद की जाए जो उनके राज्य को संभाल सकें,
इस्रायल की वैधता को स्वीकार किया जाए
और अतीत पर ध्यान केन्द्रित करने की बजाए जिससे कुछ हासिल नहीं होता,
प्रगति को चुना जाए
अमरिका उनके साथ अपनी नीतियां समन्वित करेगा जो शांति की तलाश में है।
और हम सार्वजनिक तौर पर भी वही कहेंगे जो हम अकेले में
इस्रायली, फिलिस्तीनियों और अरबों से कहते हैं।
-- (तालियाँ)।
हम शांति थोप नहीं सकते।
लेकिन निजी तौर पर बहुत से मुसलमान यह समझते हैं कि इस्रायल
कहीं चला नहीं जायेगा, इसी तरह बहुत से इस्रायली भी फिलिस्तीनी राज्य की
आवश्यकताओं को समझते हैं।
अपने दायित्व निभाने का समय आ गया है।
बहुत आंसू बह चुके हैं।
बहुत खून बह चुका है।
हम सबकी यह ज़िम्मेदारी है कि उस दिन को साकार करने की दिशा में काम करें
जब इस्रायलियों और फिलिस्तीनियों की माताएं अपने बच्चों को
भय के बिना परवान चढ़ते हुए देख सके जब तीन महान धर्मों की पवित्र भूमि
वैसी शांति का स्थल हो जैसा ईश्वर ने चाहा था,
जब यारुशलम यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों के लिए
एक सुरक्षित और स्थायी घर हो
एब्राहम की सभी संतानें उसी तरह मिलजुल कर शांतिपूर्वक रह सकें
(तालियाँ)। जैसे कि इसरा की कहानी में जबकि मोज़ेज़, जीज़स
और मोहम्म्द ने (उन पर शांति की मेहर हो) मिलकर प्रार्थना की थी।
-- (तालियाँ)।
तनाव का तीसरा स्रोत जिससे निबटना होगा वह है
राष्ट्रों के अधिकारों और उत्तरदायित्वों, विशेष रूप से परमाणु अस्त्रों के संबंध में
उनके अधिकारों और उत्तरदायित्वों की पहचान
यह विषय अमेरिका और ईरान के इस्लामी गणराज्य के बीच हाल के तनाव का एक विशेष स्रोत रहा है।
बहुत वर्षों से ईरान मेरे देश से विरोध को अपनी परिभाषा का अंग बनाए हुए है।
और यह सही है कि ईरान और हमारे बीच
एक उग्र इतिहास रहा है।
शीत युद्ध के मध्य में अमरीका ने ईरान की वैध और लोकतांत्रिक
रूप से चुनी गयी सरकार के तख़्तापलट में भूमिका निभाई।
इस्लामी क्रांति के बाद से ईरान
बंधक बनाने और अमरीकी सैनिकों और नागरिकों के विरुद्ध
हिंसा के कृत्यों में
भूमिका निभाता रहा है
यह इतिहास किसी से छिपा नहीं है।
अतीत में ही फंसे रहने की बजाए
मैंने ईरान के नेताओं और ईरान की जनता के सम्मुख
यह स्पष्ट कर दिया है कि मेरा देश आगे बढ़ने को तैयार है।
अब सवाल यह नहीं है कि ईरान किसके ख़िलाफ़ ह
बल्कि यह है कि वह कैसे भविष्य का निर्माण करना चाहता है।
मै यह जानता हूँ कि दशकों के अविश्वास से पार पाना आसान नहीं होगा
लेकिन हम साहस, धैर्य, नैतिकता और दृढ़ निश्चय के साथ आगे बढ़ेंगे।
हमारे दोनों देशों के बीच वार्तालाप के लिए बहुत से विषय होंगे,
और हम पूर्व-शर्तों के बिना और पारस्परिक आदर के आधार पर
आगे बढ़ने को तैयार हैं।
लेकिन परमाणु अस्त्रों के बारे में सभी सम्बद्ध पक्षों के लिए यह स्पष्ट है
कि हम निर्णायक बिंदु पर पहुंच चुके हैं।
यह केवल अमरीका के हित की बात नहीं
यह मध्य पूर्व में एक ऐसी परमाणु दौड़ को रोकने का मामला है
जो इस क्षेत्र और विश्व को बहुत ही ख़तरनाक मार्ग पर ले जा सकती है
और परमाणु अस्त्र प्रसार रोकने के विश्वव्यापी ढ़ांचे को तहस-नहस कर सकती है।
मैं उनकी बात समझ सकता हूं जो यह शिकायत करते हैं कि
कुछ देशों के पास ऐसे हथियार हैं जो अन्य के पास नहीं है।
किसी भी अकेले राष्ट्र को यह नहीं चुनना चाहिये कि किन देशों के पास
परमाणु हथियार होंगे।
इसीलिये मैंने सशक्त रूप में अमेरिका की इस वचनबद्धता की पुन: पुष्टि की है
कि हम एक ऐसा विश्व निर्मित करने का प्रयास करेंगे जिसमें किसी भी राष्ट्र के पास परमाणु हथियार न हों।
-- (तालियाँ)।
और हर देश को – जिसमें ईरान भी शामिल है
शांतिपूर्ण ऊर्जा तक पहुंच का अधिकार होना चाहिये बशर्ते कि वह
वह परमाणु अप्रसार संधि के तहत
अपनी ज़िम्मेदारियां पूरी करता हो
यह वचनबद्धता
इस संधि के केन्द्र में है
और उन सब की ख़ातिर जो इसका पालन करते हैं
उसे बनाये रखना होगा।
और मैं जिस चौथे विषय पर बात करना चाहूंगा वह है लोकतंत्र।
(तालियाँ)। मैं जानता हूं
मैं जानता हूं कि हाल के वर्षो में लोकतंत्र के संवर्धन को लेकर विवाद रहा है
और उस विवाद का अधिकांश ईराक मुद्दे से जुड़ा हुआ है।
तो मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं: किसी भी देश पर
किसी दूसरे देश द्वारा सरकार की कोई भी पद्धति थोपी नहीं जा सकती और थोपी नहीं जानी चाहिये।
लेकिन इससे उन सरकारों के प्रति मेरी वचनबद्धता कम नहीं होती
जो जनता की इच्छा को प्रतिबिंबित करती है।
हर देश एक सिद्धांत को अपने ढंग से
और अपने लोगों की परंपरा के अधार पर साकार करता है।
अमेरिका यह दावा नहीं करता कि उसे यह पता है हरएक के लिये सबसे अच्छा क्या है,
वैसे ही जैसे वह किसी शांतिपूर्ण चुनाव के
नतीजे का चयन नहीं कर सकता।
लेकिन मेरा यह पक्का विश्वास है कि सभी लोग कुछ विशिष्ट चीज़ें चाहते हैं:
अपनी बात खुलकर कहने का अवसर
आप पर शासन कैसे किया जायेगा उसके बारे में कुछ कहने का अधिकार,
क़ानून के शासन में और बराबरी वाले न्याय में विश्वास,
ऐसी सरकार जो पारदर्शी हो और अपने लोगों से ही कुछ न चुराये,
जैसे आप चाहें वैसे रहने की स्वतंत्रता।
यह केवल अमरीकी विचार नहीं है यह मानव के अधिकार हैं।
और इसीलिये अमरीका हर कहीं इनका समर्थन करेगा
-- (तालियाँ)।
इस स्वप्न को साकार करने का कोई सीधा रास्ता नहीं है।
लेकिन इतना स्पष्ट है कि जो सरकारें इन अधिकारों की रक्षा करती हैं ।
अंततः वे अधिक टिकाऊ, सफल, और सुरक्षित होती हैं
विचारों को दबाना, कभी भी उन्हें मिटाने में कामयाब नहीं होता।
अमरीका इस अधिकार का सम्मान करता है कि
विश्वभर में सभी शांतिपूर्ण और कानून का पालन करने वाली आवाज़ें सुनी जानी चाहिये,
चाहे हम उनसे असहमत ही क्यों न हों।
और हम सभी चुनी हुई शांतिपूर्ण सरकारों का स्वागत करेंगे,
बशर्ते की वे अपने सभी लोगों के प्रति सम्मान के साथ शासन चलायें।
यह बात महत्वपूर्ण है क्यों कि कुछ लोग हैं
जो तभी लोकतंत्र की वकालत करते हैं जब वे सत्ता से बाहर हों
और सत्ता में आते ही अन्य लोगों के अधिकारों को
बुरी तरह दबाते हैं।
--(तालियाँ)।
चाहे देश कोई भी हो,
जनता की और जनता द्वारा चुनी गई सरकार
उन सबके लिये एक मानक स्थापित करती है जिनके हाथ में शासन है
कि आपको अपनी सत्ता डरा-धमका कर नहीं, सर्व-सम्मति से ही बनाए रखनी होगी,
आपको अल्पसंखकों के अधिकारों का सम्मान करना होगा,
और अपनी जनता के हित को
अपनी पार्टी के हित से ऊपर रखना होगा।
इन तत्वों के बिना
केवल चुनावों से ही
सच्चा लोकतंत्र नहीं आता
सभा में उपस्थित एक दर्शक: बराक ओबामा वी लव यू !
राष्ट्रपति ओबामा: धन्यवाद
-- (तालियाँ)।
जिस पांचवे विषय से हमें निबटना होगा वह है
धार्मिक स्वातंत्र्य।
इस्लाम की सहिष्णुता की एक गौरवपूर्ण परंपरा है।
हमें अन्दलूबा और कोरडोबा के इतिहास में
इसके दर्शन होते हैं।
मैंने एक बालक के रूप में इंडोनेशिया में स्वयं उसे देखा है
जहां एक भारी पैमाने पर मुस्लिम बहुल देश में
ईसाई स्वतंत्र रूप से पूजा करते थे।
आज हमें इसी भावना की ज़रूरत है।
हर देश में लोगों को अपने मन-मस्तिष्क
और आत्मा की आवाज़ के अनुसार किसी भी धर्म को चुनने और
उसके अनुसार जीवन जीने की स्वतंत्रता होनी चाहिये,
वह धर्म कोई भी क्यों न हो। यह सहिष्णुता धर्म के फलने फूल्ने के लिये
अनिवार्य है, लेकिन कई तरह से उसे चुनौति दी जा रही है।
मुसलमानों के भीतर कई जगह परेशान करनेवाली यह प्रवृत्ति
दिखाई देती है की अपने विश्वास को नापने के लिए दूसरे के विश्वास को
नकारने का तरीका अपनाया जाता है।
धार्मिक विविधता की समृद्धि को मान्यता दी जानी चाहिये
चाहे वह लेबेनोन में मैरोनाइट हों मिस्र में कॉप्ट,
और (तालियाँ)।
और अगर हम ईमानदारी से बात करें तो मुसलमानों के बीच की दरार को भी
पाटा जाना चाहिए क्योंकि शिया और सुन्नियों के बीच के विभाजन ने
कई जगह पर, खासतौर पर ईराक में, त्रासद हिंसा को जन्म दिया है।
लोग मिलजुल कर साथ रह सके
इसके लिये धार्मिक स्वातंत्र्य बहुत ज़रूरी है।
हमें हमेशा यह देखना चाहिए कि हम इनकी हिफाज़त कैसे कर रहे हैं।
मिसाल के तौर पर अमेरिका में धर्मार्थ दान सम्बन्धी नियमों ने
मुसलमानों के लिए धर्मार्थ दान का दायित्वा
पूरा कर पाना अधिक मुश्किल बना दिया है।
इसलिए मैं वचनबद्ध हूँ कि यह सुनिश्चित
किया जाये कि वे ज़कात का दायित्व पूरा कर सकें।
इसी तरह, पश्चिम के देशों के लिए यह महतवपूर्ण है कि मुसलमान
जैसे चाहें अपने धर्म का पालन करे इसमें कोइ व्यवधान पैदा करने से बचें।
मिसाल के तौर पर ऐसी हिदायतों से बचें कि मुसलमान महिलाओं को
क्या वस्त्र पहनने चाहियें।
किसी भी धर्म के प्रति वैर भाव को
उदारता के दिखावे की आड़ में नहीं छुपा सकते।
विश्वास, आस्था, एक ऐसा तत्व है जो हमें एक दूसरे के निकट ला सकता है।
इसीलिय हम अमरीका में ऐसी नई सेवा परियोजनाएं चला रहे हैं
जो ईसाइयों, मुसलमानो और यहूदियों को एक साथ लाती है।
यही कारण है कि नरेश अबदुल्लाह के
अन्तर-धार्मिक वार्तलाप और तुर्की के
सभ्यताओं की मैत्री जैसे प्रयासों का हम स्वागत करते हैं।
विश्वभर में हम विभिन्न धर्मों, मान्यताओं के बीच वार्तालाप को
उनके बीच सेवा में बदल सकते हैं, ताकि लोगों के बीच सेतु निर्मित हो
चाहे वह अफ्रीका में मलेरिया से लड़ने का संघर्ष हो,
या प्राकृतिक विपदा के बाद राहत सहायता पहुंचाने का प्रयास।
और छठा विषय जिस पर मैं बात करना चाहता हूँ वोह है महिलाओं के अधिकार।
(तालियाँ)। मैं जानता हूँ --
और आप इस औडिएंस से ही समझ सकते हैं कि इस विषय पर यहाँ स्वस्थ बहस चल रही है
मैं पश्चिम के कुछ लोगों के इस विचार को स्वीकार नहीं करता
कि जो महिला अपना सिर ढंकना चाहती है वह किसी तरह कम समान है,
लेकिन मैं यह अवश्य मानता हूं कि अगर किसी महिला को शिक्षा से वंचित रखा जाता है
तो उसे बराबरी से वंचित रखा जा रहा है।
-- (तालियाँ)।
और यह महज़ संयोग की बात नहीं है कि जिन देशों में महिलाएं
अच्छी पढ़ी लिखी हैं वहां समृद्धि की संभावनाएं अधिक हैं।
और मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि महिलाओं की बराबरी का मामला
किसी भी तरह सिर्फ़ इस्लाम से ही सम्बद्ध नहीं है।
हमने मुस्लिम बहुल देशों तुर्की, पाकिस्तान, बांग्लादेश और इंडोनेशिया में
वह होते देखा है जो अभी तक अमरीका ने नहीं किया है - नेतृत्व के लिये एक महिला का चुनाव ।
इस बीच महिलाओं की बराबरी का संघर्ष
अमरीकी जन जीवन कई पहलुओं में और
विश्व भर के देशों में अब भी जारी है ।
मेरा पक्का विश्वास है कि हमारी बेटियां भी
समाज में उतना ही योगदान कर सकती हैं जितना कि हमारे बेटे।
(तालियाँ)।
और सम्पूर्ण मानवता --
स्त्री और पुरुष-- को अपनी पूर्ण क्षमता तक पहुँचने का मौक़ा देने से
हमारी साझी खुशहाली में वृद्धि होगी ।
ताकि लोगों के बीच सेतु निर्मित हो
और हमारी साझी मानवता का
सम्वर्धन हो - यही वजह है कि अमेरिका
मुस्लिम बहुल किसी भी देश के साथ
लड़कियों में साक्षरता बढ़ाने के लिए
साझेदार बनने को तैयार है।
और अंतत: मैं आर्थिक विकास
--(तालियाँ)। -
और अवसरों की उपलब्धता में अपने
साझे हित की बात करना चाहता हूं।
मैं जानता हूं कि बहुतों के लिये
वैश्वीकरण का चेहरा विरोधाभास वाला है।
इंटरनैट और टेलीविज़न ज्ञान और सूचना ला सकते है,
लेकिन साथ ही भद्दी अश्लीलता और बेसोची समझी
हिंसा भी ला सकते हैं।
व्यापार धन-दौलत और अवसर ला सकता है,
तो बड़ी उथल-पुथल और समुदायों में बड़े परिवर्तन भी।
सभी देशों में, जिनमें मेरा देश भी शामिल है,
यह परिवर्तन डर पैदा कर सकता है।
यह डर कि आधुनिकता के कारण हम आर्थिक रूप से क्या चुनें इस पर से,
राजनीति पर से, और सबसे महत्वपूर्ण यह कि
अपनी पहचान पर से, अपने समुदायों, अपने परिवरों,
अपनी आस्था के बारे में जो हमें सब से प्रिय है उन पर से, हम अपना नियंत्रण खो बैठेंगे।
लेकिन मैं जानता हूं कि मानव प्रगति को रोका नहीं जा सकता ।
विकास और परंपराओं के बीच
विरोधाभास की ज़रूरत नहीं है।
जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों ने अपनी विशिष्ट संस्कृतियां
बनाए रखते हुए भी आर्थिक विकास हासिल किया ।
यही बात कुआला लम्पुर से लेकर दुबई
तक इस्लाम के भीतर के देशों के बारे में भी सही है
पुराने ज़माने में, और आज भी
मुस्लिम समुदायों ने यह दिखाया है कि वे नवाचार
और शिक्षा की अग्रिम पंक्ति में खड़े हो सकते हैं।
और यह महत्वपूर्ण है क्योंकि विकास की कोइ भी रणनीति
केवल उन्ही वस्तुओं पर आश्रित नहीं हो सकती जो भूमि से निकलती हैं
और ना ही उसे तब बनाए रखा जा सकता है जब युवा लोग बेरोजगार हों।
खाड़ी के बहुत से देश केवल तेल के बल पर समृद्धी प्राप्त कर सके।
किन्तु हम सबको यह समझना चाहिये कि
शिक्षा और नवाचार
21वीं शताब्दी के सिक्के होंगे।
मैं अमेरिका में भी
इस पर बल दे रहा हूं ।
अतीत में हम विश्व के इस भू भाग में
तेल और गैस पर ही ध्यान केन्द्रित करते रहे हैं,
लेकिन अब हम अधिक
व्यापक साझेदारी का प्रयास करेंगे।
शिक्षा के क्षेत्र में हम आदान-प्रदान कार्यक्रम बढ़ायेंगे
और छात्रवृत्तियां बढ़ायेंगे, वैसी ही जैसी मेरे पिता
को अमेरिका लाई,
(तालियाँ)।
और साथ ही हम अमरीकियों को
मुस्लिम समुदायों में शिक्षा ग्रहण
करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे। हम विश्व भर
के अध्यापकों और बच्चों के लिए ओन लाइन पढाई की
व्यवस्था करेंगे और ओन लाइन का ऐसा ताना बाना निर्मित करेंगे
की कंसास का युवक
काहिरा के युवक से तुंरत संचार कर सके.
आर्थिक विकास के क्षेत्र में हम
व्यापार स्वयं-सेवियों के एक नए दल का निर्माण करेंगे
जो मुसलमान-बहुल देशों में
उसी स्तर के लोगों के साथ साझेदारी करें।
विज्ञान और टेक्नालाजी के क्षेत्र में
हम मुस्लिम-बहुल देशों में
तकनीकी विकास को
समर्थन देने के लिए
एक नया कोष स्थापित करेंगे
और विचारों को मंडी तक पहुंचाने में सहायता करेंगे
ताकि उनसे रोज़गार पैदा
हम अफ्रीका, मध्य पूर्व
और दक्षिण पूर्व एशिया में वैज्ञानिक विशिष्टता केन्द्र
खोलेंगे और ऊर्जा के नए स्रोतों के विकास में
सहायता देने वाले कार्यक्रमों में
सहभागिता के लिए नए विज्ञान दूत नियुक्त करेंगे।
और आज मैं इस्लामी सम्मेलन संगठन (ओ आई सी)
के साथ मिलकर पोलियो उन्मूलन के लिये एक नए विश्वव्यापी प्रयास का एलान कर रहा हूं।
और हम बाल स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य को
बढ़ावा देने के लिए मुस्लिम समदायों के
साथ सहभागिता का भी विस्तार करेंगे।
यह सभी कार्य साझेदारी में किये जाने चाहियें।
अमेरिकी विश्व भर के मुस्लिम समुदायों में और धार्मिक नेताओं, तथा व्यापारों
के साथ मिल कर काम करने को तैयार हैं
ताकि लोगों की बेहतर जीवन प्राप्त करने की कोशिश में सहायक बन सकें
जिन विषयों की मैंने चर्चा की उनसे निबटना
आसान नहीं होगा।
लेकिन हम ऐसा विश्व चाहते हैं हैं।
जिसमें अतिवादी हमारी जनता के लिए ख़तरा न रहें,
अमरीकी सैनिक स्वदेश लौटें,
इस्रायली और फिलिस्तीनी
अपने-अपने क्षेत्र में सुरक्षित हों,
परमाणु ऊर्जा का उपयोग केवल शांतिपूर्ण उद्देश्यों के ही लिए हो,
जहां सरकारें जनता की सेवा करें,
और ईश्वर की सभी संतानों के अधिकारों का सम्मान हो।
तो ऐसे विश्व के निर्माण के लिए मिलकर काम करना हमारा दायित्व है। ये हमारे साझे हित हैं
मैं जानता हूं कि मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम ऐसे बहुत से लोग हैं
जो इस बारे में सवाल उठाते हैं कि क्या हम ये नई शुरूआत कर सकते हैं।
बहुतों के मन में इस बारे में शंका है
कि क्या वास्तविक परिवर्तन हो सकता है।
इतना भय, इतना अविश्वास मौजूद है
लेकिन अगर हम अतीत से
बंधे रहना चुनते हैं
तो हम कभी आगे नहीं बढ़ सकते।
और मैं खास तौर पर हर धर्म
और हर देश के
युवा लोगों से यह बात कहना चाहता हूँ
कि और किसी से भी
ज्यादा आपमें यह क्षमता है
की आप दुनिया की
नई परिकल्पना करें, दुनिया को नए सांचे में ढाल दें।
हम सब इस धरा पर क्षण भर के लिए साझेदार होते हैं।
सवाल यह है कि क्या हम उस समय को उन बातों पर ध्यान लगाने
में गंवाना चाहते हैं जो हमें जुदा करती हैं,
या हम इस सतत प्रयास की ओर समर्पित
होना चाहते हैं कि साझा आधार ढूँढें और समस्त मानवजाति के प्रति आदर के साथ,
अपने बच्चों के लिए हम जो भविष्य चाहते हैं उसे साकार करने पर धयान लगायें।
यह सब इतना सरल नहीं है। युद्ध शुरू करना आसान होता है उसे समाप्त करना मुश्किल।
दूसरों को दोष देना आसान होता है अपने अंदर झांकना मुश्किल।
भिन्नताओं को देखना आसान होता है
क्या समान यह देखना मुश्किल।
किन्तु हमें सही रास्ता चुनना चाहिए, मात्र आसान रास्ता नहीं।
हर धर्म के मूल में एक सिद्धांत मौज़ूद
हम दूसरों के लिए वही करें जो हम चाहते हैं
कि वे हमारे लिए करें।
(तालियाँ)।
ये सत्य सार्वभौम है, राष्ट्रों और समुदायों से बढ़ कर है।
यह विश्वास नया नहीं है; यह काला, गोरा या भूरा नहीं है,
ये ईसाई, मुसलमान या यहूदी नहीं है।
यह एक आस्था है जो सभ्यता के पालने में स्पंदित हुई
और यही आज भी करोड़ो लोगों
के दिलो में धड़क रही है।
अन्य लोगों में यही विश्वास
आज मुझे यहां लाया है ।
हम जैसा विश्व चाह्ते हैं उसका निर्माण करने की शक्ति हम में है,
बशर्ते कि हममें एक नई शुरूआत करने का साहस हो,
उसे ध्यान में रखते हुए जो लिखा जा चुका है।
पवित्र क़ुरान हमें बताती है: “हे मानव!
हमने पुरुष और स्त्री बनाए;
और हमने तुम्हें राष्ट्रों और क़बीलों में बांटा
ताकि तुम एक दूसरे को जान सको” ।
तालमुड हमें बताती है: “संपूर्ण यहूदी शास्त्र का लक्ष्य है
शांति को बढ़ावा देना”।
पवित्र बाइबल हमें बताती है: “शांति-संस्थापक धन्य हैं
क्यों कि वे ही ईश्वर के पुत्र कहलायेंगे”।
-(तालियाँ)।
विश्व के लोग शांति पूर्वक रह सकते हैं।
हम जानते हैं कि ईश्वर का स्वप्न भी यही है।
तो अब यहां धरती पर हमारा काम भी यही होना चाहिये।
धन्यवाद।
और आप पर ईश्वर का शांति आशीर्वाद हो।
(तालियाँ)।
बहुत धन्यवाद।
धन्यवाद
-- (तालियाँ)।
धन्यवाद
-- (तालियाँ)। �