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ये 'ईएसओ' प्रसारण है.
अग्रणी विज्ञान और 'ईएसओ' के नेपथ्य की झलकियाँ.
'ईएसओ' यानि द यूरोपीयन सदर्न आब्जर्वेटरी,
ब्रह्माण्ड को टटोलते हुए हमारे सूत्रधार डा० जो लिस्क बनाम डा० जे के साथ.
हैलो, स्वागत है आपका 'ईएसओ' प्रसारण के इस विशेष अंक में.
ये आपको 'ईएसओ' की अक्टूबर में पचासवीं वर्षगाँठ तक ले जायेगा.
हम आपके लिए आठ विशेष अंक लेकर प्रस्तुत होंगे जिनमें आप ...
'ईएसओ' के दक्षिण के आकाश के अन्वेषण के विगत पचास गौरवशाली वर्षों की गाथा देखेंगे
यह कहानी किसी वीरगाथा से कम नहीं
यह कहानी ब्रह्माण्ड के प्रति हमारी जिज्ञासा, साहस और धीरज की ...
और ये कि क्यों यूरोपवासी तारे देखने के लिए दक्षिण गए.
जी हाँ दक्षिण.
स्वागत है आपका 'ईएसओ' यानि यूरोपीयन सदर्न आब्जेर्वेटरी में.
पचास साल पुरानी पर पहले से भी अधिक जीवंत.
'ईएसओ' यूरोप का तारों की दुनिया का प्रवेश द्वार है.
यहाँ पन्द्रह देशों के खगोलशास्त्री
हाथ मिलाकर ब्रह्माण्ड के रहस्यों के पटाक्षेप में जुटे हैं.
कैसे?
पृथ्वी की सबसे बड़ी दूरबीनें बनाकर.
सुग्राही कैमरे और अन्य संयंत्र बनाकर.
आकाश के चप्पे-चप्पे की पड़ताल कर.
इस कार्य में उन्होंने निकट और दूर के पिंडों को देखा,
सौर मंडल के भ्रमणकारी धूमकेतुओं से लेकर
दिक्काल की बाहरी सीमा पर दूरस्थ मंदाकिनियों तक,
जिसने हमें नयी दृष्टि दी और ब्रह्माण्ड के अभूतपूर्व दृश्य दिखाए.
एक ऐसा ब्रह्मांड जो पहेलियों और रहस्यों से ओतप्रोत है.
और अलौकिक सौंदर्य.
सुदूर चिली के पर्वत शिखरों पर,
यूरोपीय खगोलशास्त्री तारों को मानों छूने का प्रयास कर रहे हों.
पर चिली क्यों?
इतना दूर दक्षिण जाने की क्या जरूरत थी?
यूरोपीयन सदर्न आब्जेर्वेटरी का मुख्यालय जर्मनी के गार्चिंग में है.
पर यूरोप से आकाश का केवल एक ही भाग देखा जा सकता है.
इसकी पूर्ति के लिए दक्षिण जाना ही पड़ता है.
पिछली कई सदियों तक दक्षिण के आकाश के मानचित्रों में व्यापक रिक्त स्थान थे.
आकाश का अज्ञात भू-भाग.
1595 में,
पहली बार जब डच व्यापारी ईस्ट इंडीज़ की समुद्री यात्रा पर निकले
तो रात में पीटर केज़र और फ्रेडरिक ड हाउटमैन नामक नाविकों ने
दक्षिण के आकाश के 130 से अधिक तारों की स्थितियां नापीं.
शीघ्र ही आकाश के ग्लोब और मानचित्रों में बारह नए तारामंडल दर्शाये जाने लगे,
जिन्हें इससे पहले किसी यूरोपवासी ने नहीं देखा था.
ब्रितानी लोगों ने सर्वप्रथम एक खगोलीय सीमान्त चौकी बनाई
दक्षिणी गोलार्ध में.
सन् 1820 में केप-ऑफ़-गुड-होप में रॉयल आब्जेर्वेटरी स्थापित हुयी.
कुछ ही समय बाद जॉन हर्शेल ने अपनी निजी आब्जेर्वेटरी बनाई
दक्षिण अफ्रीका के प्रसिद्द टेबल पर्वत के समीप.
उफ़, क्या नज़ारा था!
सर पर काला आकाश, चमकीले तारक गुच्छ और तारों के बादल.
कोई ताज्जुब नहीं कि शीघ्र ही हार्वर्ड, येल और लीडन कि वेधशालाओं ने भी
यही किया, अपनी अपनी दक्षिणी चौकियां बनायीं.
पर दक्षिण के आकाश के अनुसंधान के लिए
अब भी बहुत साहस, उत्कंठा और धैर्य की आवश्यकता थी.
पचास साल पहले तक,
विश्व की अधिकांश बड़ी दूरबीनें भूमध्य रेखा के उत्तर में स्थित थीं.
तो आखिर दक्षिण के आकाश को इतनी महत्ता क्यों दी गयी?
सबसे पहले तो इसलिए कि ये एक अनजाना क्षेत्र था.
आप यूरोप में बैठे बैठे पूरा आकाश नहीं देख सकते.
इसका प्रमुख उदाहरण है हमारी आकाशगंगा मन्दाकिनी का केन्द्र.
यह भाग उत्तरी गोलार्ध से लगभग नहीं दिखाई देता,
पर दक्षिण में ये भाग सिर के ऊपर से गुज़रता है.
और फिर वे मैगेलन के बादल -
हमारी आकाशगंगा मन्दाकिनी की दो छोटी सहचरी मंदाकिनियाँ.
उत्तरी गोलार्ध से अदृश्य पर भूमध्य रेखा के दक्षिण में एकदम सुस्पष्ट.
और अंततः,
यूरोपीय खगोलविद प्रकाश प्रदूषण एवं बुरे मौसम से भी पीड़ित थे.
ऐसा लगा दक्षिण जाने से इन समस्याओं से निज़ात मिल जायेगी.
हालैंड की प्रसिद्ध इस्सेल्मेर झील में 1953 में
नौका विहार करते समय
जर्मन/अमेरिकन खगोलशास्त्री वाल्टर बादे
और हालैंड के खगोलशास्त्री येन ऊर्ट ने
अपने साथियों को दक्षिणी गोलार्ध में
यूरोपीय वेधशाला के सपने के बारे में बताया.
किसी यूरोपीय देश के लिए अकेले अमरीका से प्रतिस्पर्धा करना संभव न था.
पर शायद मिलकर वे ऐसा कर सकते.
सात महीने बाद, छः देशों के बारह खगोलशास्त्री यहाँ मिल बैठे -
- लीडन विश्वविद्यालय के उत्कृष्ट सभागार में.
उन्होंने एक वक्तव्य पर हस्ताक्षर किये,
अपनी यह इच्छा बताते हुए कि दक्षिण अफीका में यूरोपीय वेधशाला स्थापित हो.
इसने 'ईएसओ' के जन्म का मार्ग प्रशस्त किया.
पर ज़रा रुकिए! ... दक्षिण अफीका?
हाँ, यह ठीक ही था.
दक्षिण अफीका में पहले से ही केप वेधशाला थी और 1909 के बाद,
जोहान्सबर्ग स्थित ट्रांसवाल वेधशाला.
लीडन वेधशाला ने भी दक्षिण में अपनी पहचान हार्त्बीस्पूर्ट में बना रखी थी.
सन् 1955 में,
खगोलविदों ने इन स्थानों पर परीक्षण उपकरण लगाये -
ग्रेट करू में जीकोएगात और ब्लूमफोंटेन में ताफेल्कोप्जे पर.
पर मौसम का मिजाज़ ठीक न था.
और फिर 1960 में उत्तरी चिली के ऊबड़ खाबड़ पथरीले क्षेत्र पर ध्यान गया.
इस बीच अमेरिकन खगोलविद भी दक्षिणी गोलार्द्ध में
अपनी वेधशाला बनाने का सपना सँजो रहे थे.
कठिन घुड़सवारी के अभियानों ने यह सिद्ध कर दिया कि ये चिली से बेहतर है.
फिर 1963 में पासा सही पड़ा. वह उपयुक्त स्थान चिली ही है.
छः मास बाद सर्रो ला सिला को
भविष्य की यूरोपीय दक्षिणी वेधशाला के लिए चुना गया.
अब 'ईएसओ' कोई निरा सपना नहीं रह गयी थी.
अंत में, पांच यूरोपीय देशों ने 'ईएसओ' करार पर हस्ताक्षर किये – दिन था – 5 अक्टूबर 1962-
यूरोपीय दक्षिणी वेधशाला का प्रामाणिक जन्मदिन.
बेल्जियम, जर्मनी, फ्राँस, नीदरलैंड्स और स्वीडन
ने दक्षिणी तारों की खोज के लिए साथ में काम करने की शपथ ली.
इसके लिए ला सिला और उसके आसपास का क्षेत्र चिली की सरकार से खरीदा गया.
निपट सुनसान इलाके में यकायक एक सड़क निकल आयी.
'ईएसओ' की प्रथम दूरबीन ने रोटेरडम की एक स्टील फैक्टरी में आकार लेना शुरू किया.
और दिसम्बर 1966 में,
यूरोपीय दक्षिणी वेधशाला ने अपनी पहली आँख आकाश पर खोली.
यूरोप ब्रह्माण्ड की एक महान खोजयात्रा पर अग्रसर हो चला था.
इसी के साथ मैं डा० जे 'ईएसओ' प्रसारण के इस विशेष अंक से आपसे विदा ले रहा हूँ.
फिर मिलेंगे ब्रह्मांड की खोज के एक और दिलचस्प अभियान के साथ.
'ईएसओ' प्रसारण 'ईएसओ' द्वारा प्रस्तुत किया गया,
'ईएसओ' यानि यूरोपीय दक्षिणी वेधशाला.
'ईएसओ', यूरोपीय दक्षिणी वेधशाला,
खगोलशास्त्र की अग्रणी अंतर्शासकीय विज्ञान और तकनीकी संस्था है,
जो सन्नद्ध है विश्व की भूतल स्थित सबसे अत्याधुनिक दूरबीनें बनाने में.
प्रतिलेखन 'ईएसओ', अनुवाद - Piyush Pandey पीयूष पाण्डेय, JNMF, इलाहाबाद
अब जब आप 'ईएसओ' के साथ जुड़ चुके हैं,
हबल के साथ इस दुनिया के परे चलें,
हबल प्रसारण में आप पाएंगे नवीनतम खोजों की झलकियाँ
विश्व की सबसे प्रख्यात एवं सम्मानित अंतरिक्ष दूरबीन
नासा/ईएसए की हबल अंतरिक्ष दूरबीन द्वारा ली गयी.