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तो इस कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन और कृष्ण के बीच एक चर्चा थी ।
तो चर्चा का विषय यह था हालांकि युद्ध घोषित किया गया था,
जब अर्जुन को वास्तव में पता लगा कि, "दूसरी ओर मेरे रिश्तेदार हैं," कैसे वे उन्हें मार सकते हैं?
कृष्ण नें सलाह दी कि " प्रत्येक व्यक्ति को अपने निर्धारित कार्य पर अमल करना चाहिए
किसी भी व्यक्तिगत हानि या लाभ का विचार किए बिना ।"
वैदिक सभ्यता के अनुसार, समाज के चार विभाजन हैं ।
हर जगह वही विभाजन हैं दुनिया भर में । यह बहुत स्वाभाविक है ।
जैसे हम अपने ही शरीर से अध्ययन कर सकते हैं, सिर है, हाथ है, पेट है, और पैर है,
इसी तरह, समाज में पुरुषों का एक वर्ग होना चाहिए जो मस्तिष्क के रूप में माना जाना चाहिए,
पुरुषों का एक अन्य वर्ग होना चाहिए जो खतरे से समाज की रक्षा करेंगे,
पुरुषों का एक अन्य वर्ग जो खाद्यान्न उत्पादन में विशेषज्ञ होगा
और गायों को संरक्षण देगा और व्यापार करेगा ।
तो ... और पुरुषों का बाकी वर्ग अर्थात् जो मस्तिष्क का काम नहीं कर सकते है, न ही खतरे से रक्षक के रूप में काम कर सकते हैं,
न ही वे खाद्यान्न उत्पादन या गायों को संरक्षण दे सकते हैं, वे शूद्र कहे जाते हैं:
क्योंकि तुम बच नहीं सकते हो, अपने शरीर को पूरा करने के लिए, मस्तिष्क विभाग, हाथ विभाग,
पेट विभाग और चलने या काम विभाग
तो अर्जुन पुरुषों के उस समूह के थे जो समाज को सुरक्षा देने के लिए थे ।
तो जब वे लड़ने से इन्कार कर रहे थे, अर्जुन, जब वे लड़ने से इन्कार कर रहे थे,
उस समय श्री कृष्ण नें उन्हे सलाह दी कि " लड़ना तुम्हारा कर्तव्य है ।"
तो आम तौर पर हत्या बिल्कुल भी अच्छी बात नहीं है, लेकिन जब दुश्मन, हमलावर हो,
तब हमलावर को मारना पाप नहीं है ।
तो कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अन्य दल,
वे हमलावर बन गए अर्जुन के पक्ष के लिए ।
अब, यह भगवद गीता का मंच है ।
असली उद्देश्य अर्जुन को आध्यात्मिक समझ के बारे में हिदायत देना है ।
तो आध्यात्मिक समझ का मतलब है सब से पहले समझना कि अात्मा क्या है ।
अगर तुम्हे आत्मा का पता नहीं है, तो आध्यात्मिक समझ कहाँ है?
लोग बहुत ज्यादा शरीर के साथ तल्लीन हैं । यही भौतिकवाद कहा जाता है ।
लेकिन जब तुम समझते हो कि अात्मा क्या है और उसके अनुसार कार्य करते हो, यही अध्यात्मवाद है ।
तो अर्जुन में झिझक थी अन्य पार्टी के साथ लड़ने के लिए क्योंकि उनके साथ शारीरिक संबंध था ।
इसलिए अर्जुन और कृष्ण के बीच में चर्चा हुई, लेकिन वह अनुकूल चर्चा थी ।
इसलिए, जब अर्जुन को समझ अाया कि केवल अनुकूल चर्चा से समस्या का समाधान नहीं होगा, तब वे उनके शिष्य बन गए ।
अर्जुन नें कृष्ण को आत्मसमर्पण किया, शिष्यस ते अहम शाधी माम प्रपन्नम : ( भ गी २।७)
"मेरे प्यारे कृष्ण, इतने समय तक हम दोस्त की तरह बात कर रहे हैं । अब मैं अापका नियमित शिष्य बन गया हूँ ।
कृपया अनुदेश से मुझे बचाऍ । क्या मुझे करना है? "
इसलिए, जब यह स्थिति अाई, कृष्ण निम्नानुसार अर्जुन को सलाह दे रहे हैं: श्री भगवान उवाच ।
अब, यह यहाँ कहा जाता है ... कौन अर्जुन से कह रहा है?
लेखक या रिकॉर्डर भगवद गीता का ... भगवद गीता कृष्ण द्वारा कहा गया था ।
यह कृष्ण और अर्जुन के बीच एक चर्चा थी, और यह व्यासदेव द्वारा दर्ज की गई थी, और बाद में यह एक किताब बन गई ।
जैसे हम जब बोलते हैं इसे रिकॉर्ड किया जाता है और बाद में उसे एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जाता है ।
इसलिए इस पुस्तक में यह कहा गया है भगवान उवाच ।
व्यासदेव लेखक हैं । वे नहीं कहते हैं, "मैं बोलता हूँ ।""
वे कहते हैं कि भगवान उवाच - "और देवत्व के परम व्यक्तित्व ने कहा ।"